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श्यक - क्रिया' करते हैं और उस से पूरा लाभ नहीं उठा सकते तो उचित यही है कि ऐसे लोगों को अर्थ का ज्ञान हो, ऐसा प्रयत्न करना चाहिये । ऐसा न करके मूल 'आवश्यक' वस्तु को ही अनुपयोगी समझना, ऐसा है जैसा कि विधि न जानने से किंवा अविधिपूर्वक सेवन करने से फ़ायदा न देख कर क़ीमती रसायन को अनुपयोगी समझना । प्रयत्न करने पर भी वृद्धअवस्था, मतिमन्दता आदि कारणों से जिन को अर्थ ज्ञान न हो सके, वे अन्य किसी ज्ञानी के आश्रित हो कर ही धर्म-क्रिया करके उस से फ़ायदा उठा सकते हैं । व्यवहार में भी अनेक लोग ऐसे देखे जाते हैं, जो ज्ञान की कमी के कारण अपने काम को स्वतन्त्रता से पूर्णतापूर्वक नहीं कर सकते, वे किसी के आश्रित हो कर ही काम करते हैं और उस से फायदा उठाते हैं । ऐसे लोगों की सफलता का कारण मुख्यतया उन की श्रद्धा ही होती है | श्रद्धा का स्थान बुद्ध से कम नहीं है । अर्थ- ज्ञान होने पर भी धार्मिक क्रियाओं में जिन को श्रद्धा नहीं है, वे उन से कुछ भी फायदा नहीं उठा सकते । इस लिये श्रद्धापूर्वक धार्मिक क्रिया करते रहना और भरसक उस के सूत्रों का अर्थ भी जान लेना, यही उचित है ।
(३) अनेक लोग ऐसा कहते हैं कि 'आवश्यक - क्रिया' के सूत्रों की रचना जो सँस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन शास्त्रीय भाषा में है, इस के बदले वह प्रचलित लोक भाषा में ही होनी चाहिये ।
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