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वंदित्त सूत्र |
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'घण' धन 'धन्न' धान्य- अनाज 'खित्त' खेत 'वत्थू' घर दूकान आदि 'रूप' चाँदी 'सुवन्ने' सोना 'कुविअं' कुप्य - ताँबा आदि धातुएँ 'दुपए' दो पैर वाले --- दास, दासी, नौकर, चाकर आदि 'चउप्पयाम्मिं' गाय, भैंस आदि चौपाये [ इन सबके ] 'परिमाणे ' परिमाण के विषय में 'देसिअं' दिवस सम्बन्धी लगे हुए 'सव्वं ' सब दूषण से 'पडिक्कमे' निवृत्त होता हूँ ॥ १७ ॥ १८॥
भावार्थ — परिग्रह का सर्वथा त्याग करना अर्थात् किसी चीज पर थोड़ी भी मूर्च्छा न रखना, यह इच्छा का पूर्ण निरोध है, जो गृहस्थ के लिये असंभव है । इस लिये गृहस्थ संग्रह की इच्छा का परिमाण कर लेता है कि मैं अमुक चीज इतने परिमाण में ही रक्खूँगा, इससे अधिक नहीं; यह पाँचवाँ अणुव्रत है / इसके अतिचारों की इन दो गाथाओं में आलोचना की गई है । वे अतिचार ये हैं:
(१) जितना धन - धान्य रखने का नियम किया हो उससे अधिक रखना, (२) जितने घर-खेत रखने की प्रतिज्ञा की हो उससे ज्यादा रखना, (३) जितने परिमाण में सोना चाँदी रखने का नियम किया हो उससे अधिक रख कर नियम का उल्लङ्घन करना, (४) ताँबा आदि धातुओं को तथा शयन आसन आदि को जितने परिमाण में रखने का प्रण किया हो उस से ज्यादा रखना और (५) द्विपद चतुष्पद को नियमित परिमाण से अधिक संग्रह कर के नियम का अतिक्रमण करना ॥ १७ ॥ १८ ॥
१ - नियत किये हुए परिमाण का साक्षात् अतिक्रमण करना अतिचार
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