________________
प्रतिक्रमण सूत्र |
५८
* एह महारिय जत्त देव इहु न्हवणमहूसउ, जं अणलियगुणगहण तुम्ह मुणिजणअणिसिद्धउ । एम पसीह सुपासनाह थंभणयपुरडिय, sara सिरिअभयदेउ विन्नवह अणिदिय ||३०||
अन्वयार्थ - 'देव' हे देव ! ' एह महारिय जत्त ' यह मेरी यात्रा, 'इहु न्हवणमहूसउ' यह स्नान - महोत्सव | और ] 'तुम्ह तुम्हारा 'अणलियगुणगहण' यथार्थ गुणों का गान, 'जं' जो कि ' मुणिजणअणिसिद्धउ' मुनि-जनों से प्रशंसित है, [[किया ।] 'एम' इस लिये ' थंभणयपुरट्ठिय सुपासनाह' हे स्तम्भनकपुर में विराजमान श्रीपार्श्वनाथ ! ' पसीह' [ मुझ पर ] प्रसन्न होओ, इय' यह ' मुणिवरु सिरिअभयदेव ' मुनियों में श्रेष्ठ श्रीअभयदेव, 'अणिदिय ' [ जो कि जगत् से ] प्रशंसित है, 'विन्नवइ' प्रार्थना करता है ॥ ३० ॥
<
भावार्थ - हे देव ! तुम्हारी यह यात्रा, यह अभिषेकमहोत्सव और यह स्तवन, जिस में कि यथार्थ गुण वर्णन किये गये हैं और जो मुनियों से भी प्रशंसा प्राप्त करने के लायक है, मैं ने किया ; इस लिये हे स्तम्भनपुर स्थित पार्श्व प्रभो ! प्रसन्न होओ ; यह, लोक- पूजित साधु-प्रवर श्री अभयदेव सूरि विज्ञप्ति करता है ॥३०॥
*
एषा मदीया यात्रा देव एष स्नानमहोत्सवः, यदनलीकगुणग्रहणं युष्माकं मुनिजनाऽनिषिद्धम् । एवं प्रसीद श्रीपार्श्वनाथ स्तम्भनकपुरस्थित, इति मुनिवरः श्रीअभयदेवो विज्ञपयत्यनिन्दितः ॥३०॥
Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org