Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 518
________________ ५६ प्रतिक्रमण सूत्र । * तिहुअणसामिय पासनाह मह अप्पु पयासिउ, किज्जउ जं नियरूवसरिसु न मुणउ बहु जंपिउ । अन्नु न जिण जग तुह समो वि दक्खिन्नुदयासउ, जइ अवगन्नास तुह जि अहह कह होसु हयासउ ||२८|| अन्वयार्थ - 'तिहुअणसामिय पासनाह' हे तीन लोक के मालिक पार्श्वनाथ ! ' मइ' मेरे द्वारा 'अप्पु पयासिउ' आत्मा प्रकाशित किया गया; ' जं' इस लिये 'नियरूवसरिसु किज्जउ ' [तुम मुझे ] अपनासा कर लो, ' बहु जंपिउ' बहुत बकना 'न मुणउ' [मैं नहीं जानता । ' जिण' हे जिन ! ' जग' संसार में 'दक्खिन्नु दयासउ' उदारता और दया का स्थान ' तुह समो वि ' तुम्हारे बराबर भी 'अन्नु न' और नहीं है । 'तुह जि' तुम ही ' जइ ' अगर ' अवगन्नसि' 'मुझे कुछ न गिनोगे [ तो ] ' अहह ' हा , ! S ४ कह हयास हो ' मैं ] कैसा हताश होऊँगा ||२८|| ---- भावार्थ - हे तीन लोक के नाथ पार्श्वनाथ ! मैं ने आप के सामने अपना हिया खोल दिया, अब मुझे आप अपने समान बना लीजिये, बस और मैं कुछ नहीं कहना चाहता । हे जिन ! दयालु तो आप इतने हैं कि अधिक की तो बात क्या ? संसार में आप के बराबर भी कोई नहीं है । फिर आप ही मेरी उपेक्षा करेंगे तो हा ! मैं कैसा हताश न हो जाऊँगा ॥२८॥ * त्रिभुवनस्वामिन् पार्श्वनाथ मयात्मा प्रकाशितः, क्रियतां यन्निजरूपसदृश न जानामि बहु जल्पितम् । अन्यो न जिन जगति त्वत्समोऽपि दाक्षिण्यदयाश्रयः, यद्यवगणयिष्यसि त्वमेवाऽहह कथं भविष्यामि हताशकः ॥२८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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