Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

Previous | Next

Page 516
________________ ५४ प्रतिक्रमण सूत्र । * अह अन्नु वि जुग्गयविसेसु कि वि मन्नहि दणिह, जं पासिवि उवयार करइ तुह नाह समग्गह । सुच्चिय किल कल्लाणु जेण जिण तुम्ह पसीयह, किं अन्निम तं चेच देव मा मइ अवहीरह ॥२६॥ अन्वयार्थ-'समग्गह नाह' हे विश्वनाथ ! ' अह' अगर 'तुह ' तुम ‘कि वि अन्न वि' कोई और 'दीणह' दीनों की 'जुग्गयविसेसु मन्नहि योग्यता-विशेष मानते हो, "ज पासिविः जिसे देख कर 'उवयारु करइ उपकार करते हो [और] 'जेण' जिस से 'जिण' हे जिन ! 'तुम्ह पसीयह तुम प्रसन्न होते हो, 'सुच्चिय किल कल्लाणु' तो वही कल्याणकारी होगी तो 'देव' हे देव! 'किं आन्निण' और से क्या ? 'तं चेव' वही करो और] 'मइ मा अवहीरह' मेरी अवहेलना मत करो ॥२६॥ भावार्थ-हे विश्वनाथ ! अगर तुम दीनों की और कोई योग्यता-विशेष मानते हो कि जिसे देख कर उपकार करते हो, तो हे जिन! प्रसन्न होओ और वही (रत्नत्रय) मुझ में पैदा करो, वही कल्याणकारी है और से क्या मतलब ? हे देव ! मेरी उपेक्षा मत करो ॥२६॥ * अथाऽन्यमपि योग्यताविशेषं कमपि मन्यसे दीनानां, यं दृष्ट्वोपकारं करोषि त्वं नाथ समग्राणाम् । स एव किल कल्याणकारी येन जिन यूयं प्रसीदथ, किमन्येन तं चैव देव मा मामवधीरयत ॥ २६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526