Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 514
________________ ५२ प्रतिकमण सूत्र। 1 जुग्गाऽजुग्गविभाग नाह न हु जोयहि तुह सम, भुवणुक्यारसहावभाव करुणारससत्तम । समविसमई किं घणु नियइ भुवि दाह समंतउ, इय दुहिबंधव पासनाह मइ पाल थुर्णतउ ॥ २४ ॥ ___ अन्वयार्थ-'नाह' हे स्वामिन् ! 'तुह सम' तुमसरीखे 'जुम्गाजुम्गविभाग' लायक-नालायक का हिसाब 'न हु जोयहि नहीं देखते हैं, 'भुवणुवयारसहावभाव' जगत् का उपकार करने के स्वभाव वाले 'करुणारससत्तम' हे दयाभाव से उत्तम ! 'भुवि दाह समंतउ' पृथ्वी के आताप को शान्त करता हुआ 'घणु' मेघ 'किं समविसमई नियइ' क्या औधक-नीचा देखता है? 'इय' इस लिये 'दुहिबंधव पासनाह' हे दुःखियों के हितैषी पार्श्वनाथ ! 'थुणंतउ मइ पाल' स्तवन करते हुए मेरी रक्षा करो।२४॥ भावार्थ-हे नाथ ! आप-सरीखे सत्पुरुष यह नहीं देखते कि यह जीव उपकार करने के लायक और यह नालायक; क्योंकि जगत् के उपकार करने का आप का स्वभाव है । इस दया भाव से ही आप इतने उच्च बने हैं। अरे पानी बरसाने के लिये क्या बादल भी कभी यह सोचता है कि यह जगह एकसी और यह ऊँची-नीची? इस लिये हे पार्श्वनाथ ! मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरी रक्षा करें क्योंकि आप दुःखियों के बन्धु हैं ॥२४॥ + योग्याऽयोग्यविभागं नाथ न खलु गवेषयन्ति त्वत्समाः, भुवनोपकारस्वभावभाव करुणारससत्तम । समविषमाणि किं धनः पश्यति भुवि दाहं शमयन्, इति दुःखिबान्धव पाश्वनाथ मां पालय स्तुवन्तम् ॥२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -

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