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प्रतिक्रमण सूत्र । * पच्चुवयारनिरीह नाह निप्पन्नपओयण,
तुह जिणपास परोवयारकरणिक्कपरायण । सतुमित्तसमचित्तवित्ति नयनिंदयसममण,
मा अवहीरि अजुग्गओ वि मइ पास निरंजण ॥२२॥ . अन्वयार्थ-पच्चुवयारनिरीह नाह' उपकार का बदला न चाहने वाले हे नाथ ! 'निप्पन्नपओयण' सब प्रयोजनों को सिद्ध कर चुकने वाले [और] 'परोवयारकरणिक्कपरायण' जिणपास' दूसरों की भलाई करने के लिये अद्वितीय तत्पर हे जिनपार्श्व ! 'सत्तुमित्तसमाचत्तवित्ति' दुश्मन और दोस्त को बराबर समझने वाले, 'नयनिंदयसममण' नमस्कार और निन्दा करने वाले पर एकसा भाव रखने वाले [ और ] 'निरंजन पास निष्पाप हे पार्श्व! 'तुह' तुम 'अजुग्गओ वि मई मुझ नालायक की भी 'मा अवहीरय' उपेक्षा मत करो ॥२२॥
भावार्थ-हे नाथ ! तुम दूसरों की भलाई करके उस के बदले की अभिलाषा नहीं करते हो, तुम ने अपना पुरुषार्थ सिद्ध कर लिया है, तुम परोपकार करने में हमेशा लगे रहते हो, तुम अपने शत्रु को भी मित्र की तरह और निन्दक को भी प्रशंसक की तरह देखते हो और निष्पाप हो। अतः हे पार्श्व जिन! तो फिर अगर मैं नालायक भी हूँ तो भी मेरी अवहेलना मत करो॥२२॥ * प्रत्युपकारनिरीह नाथ निष्पन्नप्रयोजन, त्वं जिनपाव परोपकारकरणैकपरायण । शत्रमित्रसमचित्तवृत्ते नतनिन्दकसममनः,
अवधारयीऽयोग्यमपि मां पार्व निरज्जन ॥२२॥
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