Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 519
________________ परिशिष्ट । * जइ तुह रूविण किण वि पेयपाइण वेलवियउ, तु वि जाणउ जिण पास तुम्हि हउँ अंगीकिरिउ । इय मह इच्छिउ जं न होइ सा तुह ओहावणु, रक्खतह नियकित्ति णेय जुज्जइ अवहीरणु ॥ २९ ।। अन्वयार्थ- 'जिण' हे जिन ! 'जइ' यद्यपि 'तुह रूविण' तुम्हारे रूप में 'किण वि पेयपाइण' शायद किसी प्रेत ने 'वेलवियउ' [मुझे] ठग लिया है, 'तु वि तो भी जाणउ' [मैं यही] जानता हूँ कि 'हउँ' मैं 'तुम्हि अंगीकिरिउ'तुम ही से स्वीकार किया गया हूँ, 'पास' हे पार्श्व! 'मह इच्छिउ ' मेरा मनोरथ 'जं न होइ' अगर सिद्ध न हुआ [तो] 'सा' यह 'तुह ओहावणु' तुम्हारी लघुता है ; 'इय' इस लिये 'नियकित्ति रक्खंतह' अपनी कीर्ति की रक्षा करो, 'अवहीरणु णेय जुज्जई' अवहेलना करना युक्त नहीं है ॥२९॥ भावार्थ-हे जिन! यद्यपि आप के रूप में मुझे किसी प्रेत आदि ने ही दर्शन दिया है, लेकिन मैं यही जानता हूँ कि मुझे आप ने ही स्वीकार किया है ; इस लिये अगर मेरा मनोरथ सफल न हुआ तो इस में आप की ही लघुता है। अतः आप अपनी कीर्ति की रक्षा कीनिये, मेरी अवहेलना करना ठीक नहीं है ॥२९॥ • * यदि त्वद्रपेण केनाऽपि प्रेतप्रायेण वञ्चितः, तथापि जोनामि जिन पार्श्व युष्माभिरहमङ्गीकृतः। इति ममेप्सितं यन्न भवति सा तवाऽपहापना, रक्षन्तु निजकीर्ति नैव युज्यतेऽवधीरणा २९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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