Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 515
________________ परिशिष्ट : * न य दीणह दीणयु मुयवि अन्नु वि कि वि जुग्गय, जं जोइवि उवयारु करहि उवयारसमुज्जय । दीह दीणु निहीणु जेण वह नाहिण चत्तउ, तो जुग्गउ अहमेव पास पालहि मह चंगउ || २५ ॥ ५३ अन्वयार्थ -- ' दीणह जुग्गय' दीनों की योग्यता 'दीणयु मुयवि' दनिता को छोड़ कर 'अन्नु वि कि विन य' और कुछ भी नहीं है, 'जं जोइवि ' जिसे देख कर 'उवयारसमुज्जय' उपकार - तत्पर ! पुरुष 'उवयारु करहि' उपकार करते हैं । [ मैं ] ' दीणह दीणु' दीनों से भी दीन हूँ [ और ] 'निहीणु' निर्बल हूँ, 'जेण' जिस से कि 'तइ नाहिण चत्तउ' तुम [सरीखे ] नाथ ने छोड़ दिया हूँ ; 'तो' इस लिये 'पास' हे पार्श्व ! ' जुग्गउ अहमेव ' योग्य मैं ही हूँ, ' चंगर मइ पालहि ' जैसे बने वैसे मेरी रक्षा करो ||२५|| भावार्थ - हे पार्श्व ! दीनता को छोड़ कर दीनों की योग्यता और कुछ भी नहीं है, जिसे देख कर उपकारी लोग उपकार करते हैं। मैं दीनों से दीन और निहायत निस्सत्त्व पुरुष हूँ, शायद इसी लिये तुम ने मुझे छोड़ दिया है । पर मैं इसी वजह से उपकार के योग्य हूँ; अतः जैसे बने वैसे मुझे पालो ॥ २५ ॥ * न च दीनानां दीनतां मुक्त्वाऽन्याऽपि काचिद्येोग्यता, यां गवेषयित्वोपकारं कुर्वन्त्युपकारसमुद्यताः । दीनेभ्यो दीनो निहीनो येन त्वया नाथेन त्यक्तः, ततो योग्योऽहमेव पार्श्व पालय मां चङ्गम् ॥२५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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