Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 497
________________ परिशिष्ट । पत्थियअत्थ अणत्थतत्थ भत्तिब्भरनिब्भर, रोमंचचिय चारुकाय किन्नरनरसुरवर । जसु सेवहि कमकमलजुयल पक्खालियकलिमल, सो भुवणत्तयसामि पास मह मद्दउ रिउबलु ॥७॥ अन्वयार्थ' अणत्थतत्थ' अनर्थों से पीड़ित [अत एव ] 'पत्थियअत्थ' प्रार्थी 'भतिब्भरनिब्भर' भक्ति के बोझ से नम्रीभूत [अत एव ] 'रोमंचचिय' रोमाञ्च विशिष्ट [ अत एव ] 'चारुकाय' सुन्दर शरीर वाले 'किन्नरनरसुरवर' किन्नर, मनुष्य और देवताओं में उच्च देवता, 'जसु' जिस के ' पक्खालियकलिमलु' कलिकाल के पापों को नाश करने वाले 'कमकमलजुयल' दोनों चरणकमलों की 'सेवहि' सेवा करते हैं, 'सो' वह 'भुवणत्तयसामि पास' तीनों लोकों के स्वामी पार्श्व 'मह रिउबल' हमारे वैरियों की सामर्थ्य को 'मद्द' चूर-चूर करे ॥७॥ भावार्थ – हे पार्श्व प्रभो ! अनेक अनर्थों से घबड़ा कर भक्ति-वश रोमाञ्चित हो कर सुन्दर-सुन्दर शरीरों को धारण करने वाले उच्च उच्च किन्नर, मनुष्य और देवता अर्थात् तीनों लोक तुम्हारे चरण-कमलों की सेवा करते हैं, जिस से कि उन के क्लेश और पाप दूर हो जाते हैं, इसी लिये तुम 'भुवनत्रयस्वामी' कहलाते हो, सो मेरे भी शत्रुओं का बल नष्ट करो ॥७॥ ७ + प्रार्थितार्था अनर्थत्रस्ता भक्तिभरनिर्भराः, रोमाञ्चाश्चिताश्चारुकायाः किभरनरसुरवराः । यस्य सेवन्ते क्रमकमलयुगलं प्रक्षालित कलिमलं, स भुवनत्रयस्वामी पार्श्वो मम मईयंतु रिपुबलम् ॥ ७ ॥ ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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