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प्रतिक्रमण सूत्र |
* मह मणु तरलु पमाणु नेय वाया वि विसंकुल, न य त रवि अविणयसहावु आलसविहलंथल | तुह माहप्पु पमाणु देव कारुण्णपवित्तउ, इय मइ मा अवहीर पास पालिहि विलवंतड ॥ १८॥
अन्वयार्थ - 'मह मणु' मेरा मन 'तरलु' चञ्चल है [ अतः ] 'पमाणु नेय' प्रमाण नहीं है, 'वाया वि विसं टुलु' वाणी भी चल - विचल है 'रवि' शरीर भी 'अविण्यसहावु' अविनय स्वभाव वाला है [ तथा ] 'आलसविहलथलु' आलस्य से परवश है [अतः ] 'पमाणु न य' [ वह भी ] प्रमाण नहीं है, [ किन्तु ] ' तुह माहप्पु ' तुम्हारा माहात्म्य 'पमाणु' प्रमाण है । 'इय' इस लिये 'पास देव' हे पार्श्व देव ! 'कारुण्णपवित्तर' दया- युक्त और 'विलवंतउ' रोते हुए 'मह' मुझ को 'पालिहि' पालो [ और ] ' मा अवहीर' [मेरी] अवहेलना मत करो || १८॥
भावार्थ- हे पार्श्व देव ! मेरा मन चञ्चल है, बोली अव्यवस्थित है और शरीर का तो स्वभाव ही अविनयरूप है तथा आलस्य के वशीभूत है, इस लिये ये कोई प्रमाण नहीं हैं; प्रमाण है, तुम्हारा माहात्म्य । मैं रो रहा हूँ, अत एव दया का पात्र हूँ । तुम मेरी अवहेलना मत करो, बल्कि रक्षा करो ॥ १८ ॥
* मम मनस्तरलं प्रमाणं नैव वागपि विसंष्टुला, न च तनुरप्यविनयस्वभावाऽऽलस्यविशुद्धखला । तव माहात्म्यं प्रमाण देव कारुण्यपवित्रम्,
कृति माम्मा अवधीरय पार्श्व पालय विलपन्तम् ॥१८॥
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