Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 507
________________ परिशिष्ट । * फणिफणफार फुरंतरयण कररांजियनहयल, फलिणीकंदलदलतमालनीलुप्पलसामल । कमठासुरउवसग्गवग्गसंसग्गअगंजिय, जय पच्चक्खजिणेस पास थंभणयपुरट्ठिय ॥ १७॥ अन्वयार्थ – 'फणिफणफारफुरंतरयणकररंजियनहयल' धरणेन्द्र के फण में देदीप्यमान रत्नों की किरणों से रँगे हुए आकाश में 'फलिणीकंदलदलतमालनीलुप्पलसामल' प्रियङ्गु के अङ्कर तथा पत्तों की, तमाल की और काले कमल की तरह श्यामल, [ तथा ] ' कमठासुरउवसग्गवग्गसंसग्गअगंजिय' कमठ असुर के द्वारा किये गये अनेक उपसर्गों को जीत लेने वाले, 'थंभणयपुरद्विय पच्चक्ख जिणेस पास' हे स्तम्भनकपुर में विराजमान प्रत्यक्ष - जिनेश पार्श्व ! 'जय' [तुम्हारी ] जय हो ॥१७॥ भावार्थ- पार्श्व प्रभु ने जब कि 'कमठ' नामक असुर के उपसर्गों को सहा तब भक्ति-वश धरेणन्द्र उन के संकटों को निवारण करने के लिये आया । उस समय धरणेन्द्र की फणी में लगी हुई मणियों के प्रकाश में भगवान् के देह की कान्ति ऐसी मालूम होती थी, मानों ये प्रियङ्गु नामक लता के अरङ्कु तथा पत्ते हैं या तमाल वृक्ष और नीले कमल हैं, ऐसे हे स्तम्भनकपुर में विराजमान और प्रत्यक्षीभूत पार्श्व जिन ! तुम जयवन्त रहो ॥१७॥ * फणिफणस्फारस्फुरद्रत्नकररञ्जितनभस्तले, फलिनीकन्दलदलतमालनीलोत्पलश्यामल । कमठासुरोपसर्गवर्ग संसर्गाऽगञ्जित, जय प्रत्यक्षजिनेश पार्श्व स्तम्भनकपुरस्थित ॥ १७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ४५ www.jainelibrary.org

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