Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 496
________________ प्रतिक्रमण सूत्र। +तुह आणा थंभेइ भीमदप्पुधुरसुरवर,रक्खसजक्खफर्णिदविंदचोरानलजलहर । जलथरचारि रउखुद्दपसुजोइणिजोइय, इय तिहुअणअविलंपिआण जय पास सुसामिय ॥६॥ ___ अन्वयार्थ--'सुसामि' हे सुनाथ ! 'तुह आणा' तुम्हारी आज्ञा---'भीमदप्पुद्धरसुरवररक्खसजक्खफाणदविंदचारानलजलहर' बड़े भारी अहंकार से उद्दण्ड भूत-प्रेत आदि, राक्षस, यक्ष, सर्प-राजों के समूह, चोर, अग्नि और मेघ को 'जलथलचारि' जलचर और स्थलचर को 'रउद्दखुद्दपसुजोइणजोइय' [तथा ] अतिभयंकर हिंसक पशु, योगिनी और योगी को 'थंमेह रोक देती है, 'इय' इस लिये 'तिहुअणअविलंधिआण पास' हे तीनों लोकों में जिस का हुक्म न रुकै, ऐसे पार्श्व! 'जय' [तुम्हारी] जय हो॥६॥ भावार्थ--हे पार्श्वसुनाथ! तुम्हारी आज्ञा बड़े-बड़े घमण्डी और उद्दण्ड भूत-प्रेत आदि के राक्षस, यक्ष और सर्पराजों के समूह के; चोर, आग्न और मेघों के ; जलचर-नाके, घड़ियाल आदि के थलचर-व्याघ्र आदि के; भयंकर और हिंसक पशुओं के योगिनियों और योगियों के आक्रमणों को रोक देती है। इसी लिये तुम 'त्रिभुवनाविलाङ्घताज्ञा हो ॥६॥ + तवाऽऽज्ञा स्तम्नाति भीमदर्पोद्धरसुरवर, राक्षसयक्षफणीन्द्रवृन्दचोराऽनलजलधरान् । जलस्थलचारिणः रौद्रक्षुद्रपशुयोगिनीयागिनः, शते त्रिभुवनाविलडिघताज्ञ जय पार्य सुस्वामिन् ॥६॥ Jain Education International Fotrivate & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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