Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 502
________________ प्रतिक्रमण सूत्र । ४० * तुह कल्लाणमहेसु घंटटंकारऽवपिल्लियवल्लिरमल्ल महल्लभत्ति सुरवर गंजुल्लिय | हल्छु फलिय पवत्तयति भुवणे वि महूसव, इय तिहुअणआणंदचंद जय पास सुहुब्भव ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ ---- 'घंटटंकारवपिल्लिय' घण्टा की आवाज़ से प्रेरित हुए, ' वल्लिरमल्लिय' हिल रही हैं मालाएँ जिन की, ऐसे 'महल्लभत्ति' बड़ी भारी भक्ति वाले [ अत एव ] 'गंजुल्लिय' रोम-अञ्चित [ और ] 'हल्लुप्फलिय' हर्ष से प्रफुल्लित " सुरवर ' इन्द्र ' तुह कल्लाणमहेसु ' तुम्हारे कल्याणमहोत्सवों पर 'भुवणे वि' इस लोक में भी 'महूसव पवतयंति' महोत्सवों को विस्तारते हैं । 'इय' इस लिये 'तिहुअणआणंद चंद सुहुब्भव पास' हे तीनों लोकों को आनन्द उपजाने के लिये चन्द्रमा के समान [ और ] सुख की खानि पार्श्व ! 'जय' [तुम्हारी] जय हो १२ भावार्थ - देवेन्द्र तुम्हारे कल्याणकोत्सव पर भक्ति की प्रचुरता से रोमाञ्चित हो जाते हैं, उन की मालाएँ हिलने-जुलने लगती हैं और हर्ष के मारे फूले नहीं समाते । तब वे यहाँ भी महोत्सवों की रचना रचते हैं- भूतलवासियों को भी आनन्दित करते हैं; इसी लिये हे पार्श्व ! तुम्हें 'सुखोद्भव' या 'त्रिभुवन-आनन्दचन्द्र' कहना चाहिये ॥ १२ ॥ * तव कल्याणमहेषु घण्टाटङ्कारावक्षिप्ताः, वेल्यमानमाला महाभक्ताः सुरवराः रोमाश्विताः । हर्षोत्फुल्लिताः [त्वरिताः] प्रवर्त्तयन्ति भुवनेऽपि महोत्सवान्, इति त्रिभुवनाऽऽनन्दचन्द्र जय पाईव सुखोद्भव ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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