Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 504
________________ ४२ प्रतिक्रमण सूत्र । * तुह समरणजलवरिससित्त माणवमइमेइणि, अवरावरसुहुमत्थबाहकंदलदलरेहाण । जाइय फलभरभरिय हरियदुहदाह अणोवम, इय मइमेइणिवारिवाह दिस पास मई मम ॥१४॥ ___अन्वयार्थ-'तुह समरणजलवरिससिच' तुम्हारे स्मरणरूप जल की वर्षा से सींची हुई 'माणवमइमेइणि' मनुष्यों की मतिरूप मेदिनी-पृथ्वी, 'अवरावरसुहुमत्थबोहकंदलदलरेहणि' नये-नये सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञानरूप अङ्कुर और पत्रों से शोभित, 'फलभरभरिय' फलों के भार से पूर्ण, 'हरियदुहदाहा' दुःख और ताप का नाश करने वाली [अत एव] 'अणोवम' अनुपम-विचित्र ‘जाइय' हो जाती है; 'इय' इस लिये 'मइमेइणिवारिवाह पास' हे मतिरूप पृथ्वी के मेघ पार्थ! 'मम मई दिस' मुझे बुद्धि दो ॥१४॥ भावार्थ-जिस तरह जल के बरस जाने पर पृथ्वी पर नये-नये अङ्कुर उग आते हैं, उन पर पत्ते और फूल लग आते हैं, दुःख और ताप मिट जाता है और वह विचित्र हो जाती है; इसी तरह तुम्हारे स्मरण होने पर मनुष्य की मति नये-नये और सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान कर लेती है, विरक्ति को प्राप्त करती है, संसार के संकट काटती है और अनुपमता धारण करती है। इसी लिये हे पाव! तुम 'मतिमेदिनीवारिवाह' हो। मुझे बुद्धि दो॥१४॥ * त्वत्स्मरणजलवर्षसिक्का मानवमतिमेदिनी, अपरापरसूक्ष्मार्थबोधकन्दलदलराजी। जायते फलभरभरिता हरितदुःखदाहाऽनुपमा, इति मतिमेदिनीवारिवाह दिश पाश्र्व मतिं मम ॥१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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