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परिशष्ट । * निम्मलकेवलकिरणनियरविहुरियतमपहयर, दंसियसयलपयत्थसत्थ वित्थरियपहाभर । कलिकलुसियजणघूयलोयलोयणह अगोयर, तिमिरइ निरु हर पासनाह भुवणत्तयदिणयर ॥१३॥
अन्वयार्थ-'निम्मलकेवलकिरणनियरविहुरियतमपहयर' हे निर्मल केवल [-ज्ञान] की किरणों से अन्धकार के समूह को नष्ट करने वाले ! 'दंसियसयलपयत्थसत्थ' हे सकल पदार्थों के समूह को देख लैने वाले ! 'वित्थरियपहाभर' हे कान्तिपुञ्ज को विस्तारने वाले! [अतएव 'कलिकलुसियजणघूयलोयलोयणह अगोयर हे कलिकाल के कलुषित मनुष्यरूप उल्लू लोगों की आँखों से नहीं दीखने वाले! [अत एव] 'भुवणत्तयदिणयर पासनाह' हे तीनों लोकों के सूर्य पार्श्वनाथ ! 'तिमिरइ निरु हर" अन्धकार को अवश्य विनाशो ॥१३॥
भावार्थ-हे पार्श्वनाथ ! तुम ने अपने निर्मल केवलज्ञान की किरणों से अज्ञानान्धकार नष्ट कर दिया, तमाम पदार्थ-जाल देख लिया, अपने ज्ञान की प्रभा खूब फैलाई, अत एव कलिकाल के रागी-द्वेषी पुरुष आप को पहिचान नहीं सकते; इसी लिये तुम 'भुवनत्रय-दिनकर' हो। अत एव मेरा अज्ञान-अन्धकार दूर करो ॥१३॥ * निर्मलकेवलीकरमनिकरावधरिततमःप्रकर, दर्शितसकलपदार्थसार्थ विस्तरितप्रभाभर । कलिकलुषितजनधूकलोकलोचनानामगोचर, तिमिराणि निरु हर पार्श्वनाथ भुवनत्रयदिनकर ॥१३॥
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