Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 495
________________ परिशिष्ट । * खुद्दपउत्तइ मंततंतजंताइ विसुत्तइ, चरथिरगरलगहुग्गखग्गरिउवग्ग विगंजइ । दुत्थियसस्थ अणत्थपत्थ नित्थारह दय करि, दुरियइ हरउ स पासदेउ दुरियकरिकेसरि ॥५॥ ___ अन्वयार्थ-[जो] 'खुद्दपउत्तइ' क्षुद्र पुरुषों द्वारा किये गये 'मंततंतजंताइ' मन्त्र, तन्त्र, यन्त्रों को 'विसुत्तई' निष्फल कर देता है, 'चरथिरगरलगहुग्गखग्गरिउवग्ग' जङ्गम-विष, स्थिर-विष, ग्रह, भयंकर तलवार और शत्र-समुदाय का 'विगंजइ' पराभव कर देता है और] 'अणत्थपत्थ' अनथों से घिरे हुए 'दुत्थियसत्थ' बेहाल प्राणियों को 'दय करि' कृपा कर 'नित्थारइ' बचा देता है, 'स' वह 'दुरियक्करिकेसरि पासदेउ' पापरूप हाथियों के लिये शेर समान पार्श्वदेव 'दुरियइ हरउ मेरे पाप दूर करे ॥ ५॥ भावार्थ-हे प्रभो ! तुम 'दुरित-करि-केसरी' इस लिये कहलाते हो कि तुम क्षुद्र आदमियों द्वारा किये गये यन्त्र-तन्त्र आदि को निष्फल कर देते हो; सर्प-सोमल आदि के विष को उतार देते हो; ग्रह-दोषों को निवारण कर देते हो; भयंकर तलवारों के वारों को रोक देते हो; वैरियों के दलों को छिन्न-भिन्न कर देते हो और जो अनर्थों में फंसे हुए अत एव दुःखित प्राणियों के दुःख मेट देते हो। हे पाव! दया कर मेरे भी पापों का नाश करो ॥५॥ * क्षुद्रप्रयुक्तानि मन्त्रतन्त्रयन्त्रानि विसूत्रयति, चरास्थरगरलग्रहोप्रखगरिपुवर्गान्विगजयति। दुःस्थितसत्वाननर्थप्रस्तानिस्तारयति दयां कृत्वा, दुरितानि हरतु स पार्वदेवो दुरितकरिकेसरी ॥५॥ - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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