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परिशिष्ट ।
x जरजज्जर परिजुण्णकण्ण नटुट्ठ सुकुठिण ,
चक्खुक्खीण खएण खुण्ण नर सल्लिय सूलिण । तुह जिण सरणरसायणेण लहु हंति पुणण्णव , जयधनंतरि पास मह वि तुह रोगहरो भव ॥३॥
अन्वयार्थ-'जिण' हे जिन! 'तुह' तुम्हारे 'सरणरसायणेण' स्मरणरूप रसायन से 'नर' [जो मनुष्य 'जरजज्जर' ज्वर से जीर्ण हो चुके हों 'सुकुट्ठिण' गलित कोढ़ से 'परिजुण्णकण्ण' जिन के कान बह निकले हों 'नढुह जिन के ओठ गल गये हों 'चक्खुक्खीण' जिन की आँखें निस्तेज पड़ गई हों 'खएण खुण्ण' क्षय रोग से जो कृश हो गये हों [और] 'सूलिण सलिलय' जो शूल रोग से पीडित हों वे भी] 'लहु पुणण्णव' शीघ्र ही फिर जवान 'हंति' हो जाते हैं 'जयधन्नतरि पास' हे संसार भर के धन्वन्तरि पार्श्व ! 'तुह' तुम 'मह वि' मेरे लिये भी 'रोगहरो भव' रोग-नाशक होओ॥३॥
भावार्थ-हे जिन ! तुम्हारे स्मरणरूप रसायन से वे लोग भी शीघ्र युवा सरीखे हो जाते हैं, जो ज्वर से जर्जरित हो गये हों; गलित कोढ़ से जिन के कान बह निकले हों; ओठ गल गये हों; आँखों से कम दीखने लग गया हो; जो क्षय रोगसे कृश हो गये हो तथा शुल रोग से पीडित हों। इस लिये हे पार्श्व प्रभो! तुम 'जगद्धन्वन्तरि' कहलाते हो । अब तुम मेरे भी रोग का नाश करो ३ * ज्वरजर्जराः परिजूर्णकर्णा नष्टौष्टाः सुकुष्ठेन,
क्षीणचक्षुषः क्षयेण क्षुण्णा नराः शल्यिताः शूलेन । तव जिन स्मरणरसायनेन लघु भवन्ति पुनर्नवाः, जगद्धन्वन्तरे पाश्र्व ममाऽपि त्वं रोगहरो भव ॥३॥
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