Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 491
________________ परिशष्ट । २९ तिहुअणजणअविलंधिआण भुवणत्तयसामिश्र , कुणसु सुहाइ जिणेस पास थंभणयपुरठि ॥१॥ अन्वयार्थ-'तिहुअणवरकप्परुक्ख' तीनों लोकों के लिये उत्कृष्ट कल्पवृक्ष के समान 'जिणधन्नतरि' जिनों में धन्वन्तरि के सदृश 'तिहुअणकल्लाणकोस' तीन लोक के कल्याणों के ख़ज़ाने 'दुरिअक्करिकेसरि' पापरूप हाथियों के लिये सिंह के समान 'तिहुअणजणअविलंपिआण' तीनों लोकों के प्राणी जिस की आज्ञा का उल्लङ्घन नहीं कर सकते ऐसे 'भुवणत्तयसामिअ' तीनों लोकों के नाथ 'थंभणयपुरहिअ स्तम्भनपुर में विराजमान 'पास जिणेस' हे पार्श्व जिनेश्वर ! 'जय जय जय' तेरी जय हो और बार-बार जय हो, मेरे लिये] 'सुहाइ कुणसु' सुख करो ॥१॥ भावार्थ--स्तम्भनपुर में विराजमान हे पार्श्व जिनेश्वर ! तुम्हारी जय हो और बार-बार जय हो । तुम तीनों लोकों में उत्कृष्ट कल्पवृक्षके समान हो; जैसे वैद्यों में धन्वन्तरि बड़े भारी वैद्य हैं, उसी तरह तुम भी जिनों-सामान्य केवलियों में उत्कृष्ट जिन हो; तीनों जगत् को कल्याण-दान के लिये तुम एक खजान हो; पापरूप हाथियों का नाश करने के लिये तुम शेर हो, तीनों जगत् में कोई तुम्हारे हुक्म को टाल नहीं सकता और तीनों जगत् के तुम मालिक हो । अतः मेरे लिये सुख करो ॥१॥ त्रिभुवनजनाविलडिघताज्ञ भुवनत्रयस्वामिन, कुरुष्वं सुखानि जिनेश पार्व स्तम्भनकपुरस्थित ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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