________________
३२०
प्रतिक्रमण सूत्र । पढ़ते, गुणते, विनय, वैय्यावृत्य, देवपूजा, सामायिक, पौषध, दान, शील, तप, भावनादिक धर्मकृत्य में-मन वचनकाया का बल, वीर्य, पराक्रम फोरा नहीं । विधिपूर्वक पञ्चाङ्ग खमासमण न दिया। द्वादशावत चन्दन की विधि भले प्रकार न की। अन्य-चित्त निरादर से बैठा । देववन्दन, प्रतिक्रमण में जल्दी की । इत्यादि वीर्याचारसंबन्धी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानतेअनजानते लगा हो, वह सब मन-वचन-काया कर मिच्छा मि दुक्कडं। "नाणाइ अट्ठ पइवय, समसंलेहण पण पन्नर कम्मेसु । बारस तव विरिअतिगं, चउव्वीसं सय अइयारा॥"
“पडिसिद्धाणं करणे०" ॥४८॥
प्रतिषेध-अभक्ष्य, अनन्तकाय, बहुबीज भक्षण, महारम्भ, परिग्रहादि किया। देवपूजन आदि षट्कर्म,सामायिकादि छह आवश्यक, विनयादिक, अरिहन्त की भक्ति-प्रमुख करणीय कार्य किये नहीं । जीवाजीवादिक सूक्ष्म विचार की सद्दहणा न की । अपनी कुमति से उत्सूत्र प्ररूपणा की। तथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोम, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति, अरति, परपरिवाद, माया मृषावाद, मिथ्यात्वशल्य, ये अठारह पापस्थान किये कराये अनुमोदे । दिनकृत्य, प्रतिक्रमण, विनय, वैयावृत्य न किया । और भी जो कुछ वीतराग की आज्ञा से विरुद्ध किया कराया करते को भला जाना । इन
Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org