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प्रतिक्रमण सूत्र ।
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अत एव हे भगवन् ! मैं तेरी सेवा किस तरह करूँ ? अर्थात् तेरी सेवा के लिये कोई रास्ता मुझे नहीं दीखता ॥ ५ ॥
कृतं मयाऽमुत्र हितं न चेह, लोकेऽपि लोकेश ! सुखं न मेऽभूत्। अस्मादृशां केवलमेव जन्म, जिनेश ! जज्ञे भवपूरणाय || ६ ||
भावार्थ- पारलौकिक हित का भी साधन नहीं किया और इस लोक में भी सुख नहीं मिला, इस लिये हे जिनेश्वर देव ! हमारे जैसे उभय- लोक भ्रष्ट प्राणियों का जन्म सिर्फ भवोंजन्म - प्रवाह की पूर्ति के लिये ही हुआ || ६ ||
मन्ये मनो यन्न मनोज्ञवृत्त !, त्वदास्यपीयूषमयूखलाभात् । द्रुतं महानन्दरसं कठोर, मस्मादृशां देव ! तदश्मतोऽपि ॥७॥
भावार्थ - हे सुन्दर - चरित्र - सम्पन्न विभो ! तेरे मुखरूप चन्द्र को अर्थात् उस की अमृतमय किरणों को पा कर भी मेरे मन में से महान् आनन्द - रस का अर्थात् हर्ष - जल का प्रवाह नहीं बहा, इस लिये जान पड़ता है कि मेरा मन पत्थर से भी अधिक कठिन है । सारांश यह है कि चन्द्र की किरणों का संसर्ग होते ही चन्द्रकान्त नामक पत्थर भी द्रुत होता है, यहाँ तक कि उस में से जल टपकने लगता है, पर हे प्रभो ! तेरे चन्द्रसदृश मुख के संसर्ग से भी मेरा मन द्रुत नहीं हुआ उस में से आनन्द-रस नहीं बहा, इस लिये ऐसे मन को मैं पत्थर से. भी अधिक कठिन समझता हूँ ॥७॥
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