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प्रतिक्रमण सूत्र ।
विडम्बितं यत्स्मरघस्मरार्ति, दशावशात् स्वं विषयान्धलेन । प्रकाशितं तद्भवतो हियैव,सर्वज्ञ! सर्व स्वयमेव वेसि ॥११॥
भावार्थ-मैं ने विषयान्ध हो कर कामरोग-जनित पीड़ा की 'परवशता से अपने आत्मा को जो कुछ विडम्बना पहुँचाई, उस को
आप से लज्जित हो कर ही प्रकट कर दिया है, क्योंकि हे सर्वज्ञ प्रभो! आप स्वयं ही उस सब वृत्तान्त को जानते हैं ॥ ११ ॥ ध्वस्तोऽन्यमन्त्रैःपरमोष्ठिमन्त्रः, कुशास्त्रवाक्यैर्निहताऽऽगमोक्तिः कर्त वृथा कर्म कुदेवसंगा,-दवाञ्छि ही नाथ ! मतिभूमो मे १२
भावार्थ-मैं ने अन्य मन्त्रों की महिमा की दुराशा में परमेष्ठी जैसे अपूर्व मन्त्र का अनादर किया, कुवासना बढ़ाने चाले कामशास्त्र आदि मिथ्या शास्त्रों के जाल में फँस कर सच्चे आगम-ग्रन्थों की अवहेलना की और सराग देवों की उपासना के निमित्त से तुच्छ कर्म करने की इच्छा भी की, हे नाथ ! सच-मुच ही यह सब मेरा मति-भ्रम-बुद्धि का विपर्यासमात्र है ।१२। विमुच्य दृग्लक्ष्यगतं भवन्तं, ध्याता मया मूढधिया हृदन्तः। कटाक्षवक्षोजगभीरनाभि, कटीतटीयाःसुदृशां विलासाः ।१३।
भावार्थ- हे भगवन् ! जब आप मेरी निगाह में पड़े--आप के दर्शन का जब समय आया, तब मति-मूढता के कारण मैं ने उधर से मन हटा कर स्त्रियों के सुन्दर-सुन्दर नेत्रों का, कटाक्षों का, स्तनों का, गहरी टुड़ी का, कमर-किनारे का और हाव-भावों का ही ध्यान किया ॥ १३ ।।
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