Book Title: Panch Pratikraman
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 455
________________ चैत्य-वन्दन-स्तवनादि। ३५९ स्थितं न साधोर्हदि साधुवृत्तात्, परोपकारान यशोजितं च । कृतं न तीर्थोद्धरणादि कृत्यं,मया मुधा हारितमेव जन्म ॥२१॥ भावार्थ—मैं ने सदाचार का पालन करके साधु पुरुष के हृदय में स्थान नहीं पाया अर्थात् सदाचार से महात्माओं को प्रसन्न नहीं किया, परोपकार करके यश न कमाया और तीर्थोद्धार आदि कोई पवित्र ] काम भी नहीं किया । मैं ने जन्म व्यर्थ ही गँवाया ॥२१॥ वैराग्यरङ्गो न गुरूदितेषु, न दुर्जनानां वचनेषु शान्तिः । नाध्यात्मलेशो मम कोऽपि देवा,तार्यःकथंकारमयं भवाब्धिः२२ भावार्थ-मुझे न गुरु-उपदेश से वैराग्य हुआ, न में ने दुर्जनों के वचनों को सुन कर शान्ति धारण की और आध्यात्मिक भाव का लेश भी मुझ में पैदा नहीं हुआ। [अतः] हे भगवन् ! मुझ से यह संसार-समुद्र कैसे पार होगा ?।। २२ ।। पूर्वे भवऽकारि मयान पुण्य,-मागामि जन्मन्यपि नो करिष्ये। यदीडशोऽहं मम तेन नष्टा, भूतोद्भवद्भाविभवत्रयीश ॥२३॥ भावार्थ-मैं ने पूर्व जन्म में तो कोई पुण्य किया ही नहीं है [ क्योंकि यदि किया होता तो इस जन्म में ऐसी दुरवस्था प्राप्त नहीं होती । और इस वर्तमान जन्म की दुरवस्था के कारण] मुझ से अगले जन्म में भी पुण्य होना सम्भव नहीं है । अगर मैं ऐसा ही रहा तो हे भगवन् ! मेरे भूत, वर्तमान और भविष्यत्-तीनों जन्म यों ही बर्वाद हुए-उन से कुछ भी इष्ट-सिद्धि नहीं हुई ॥ २३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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