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प्रतिक्रमण सूत्र । किंवा मुधाहं बहुधा सुधाभुक्, पूज्य त्वदग्रे चरितं स्वकीयम् । जल्पामि यस्मात्रिजगत्स्वरूप,-निरूपकस्त्वं कियदेतदत्र ।२४॥
भावार्थ-अथवा, देवताओं के भी पूज्य हे प्रभो ! तेरे आगे अपने चरित्र को मैं तरह-तरह से व्यर्थ ही कह रहा हूँ, क्योंकि तू तो तीनों जगत् के स्वरूप को [ प्रत्यक्ष देख कर ] कहने वाला है । तेरे लिये यह क्या [ चीज़ ] है ॥ २४ ॥
दीनोद्धारधुरन्धरस्त्वदपरो नाऽस्ते मदन्यः कृपा,पात्रं नात्र जने जिनेश्वर! तथाऽप्येतां न याचे श्रियम् । किंत्वहन्निदमेव केवलमहो सदोधिरत्नं शिवं, श्रीरत्नाकर! मङ्गलैकनिलय! श्रेयस्करं प्रार्थये ॥२५॥
भावार्थ-हे जिनेन्द्र! इस लोक में तुझ से बढ़ कर दूसरा कोई दीन-दुःखियों का उद्धार करने वाला नहीं है और मुझ से बढ़ कर दूसरा कोई दीन-दया का पात्र नहीं है तथापि मैं इस लक्ष्मी-सांसारिक वैभव को मैं नहीं चाहता; किन्तु मोक्ष-लक्ष्मी की उत्पत्ति के लिये रत्नाकर-समुद्र के समान और मंगलों के प्रधान स्थान, ऐसे हे अर्हन् प्रभो ! मैं सिर्फ उस सम्यग्ज्ञानरूप रत्न की, जो मांगलिक और मोक्षप्रद है, प्रार्थना करता हूँ । अर्थात् तू रत्नाकर है-तुझ में अनेक रत्न हैं
और मेरी मांग तो सिर्फ एक ही रत्न की है । एक रत्न पाने से मेरा तो कल्याण हो ही जायगा और तुझ में कोई कमी नहीं आयगी ॥ २५ ॥
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