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चैत्य-कन्दन-स्तवनादि 1
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मांजर अनुभव रूप, उतरे चारित्र फल जिहां जी ॥९॥ शान्ति सुधारस वारि, पान करी सुख लीजिए जी । तंबोल सम ल्यो स्वाद, जीवने संतोष रस कीजिए जी | १०| बीज करो दोय मास, उत्कृष्टि बाघीस मासनी जी । चौविहार उपवास, पालिये शील वसुधासनी जी । ११ । आवश्यक दोय वार, पडिलेहण दोय लीजिए जी । देव- वन्दन ऋण काल, मन वच कायाए कीजिए जी | १२ | ऊजमशुं शुभ चित्त, करी धरीये संयोगथी जी । जिनवाणी रस एम, पीजिए श्रत उपयोगथी जी | १३ | इविधिकरीये बीज, राग ने द्वेष दूरे करी जी । केवल पद लही तास, मुक्ति वरे ऊलट धरी जी | १४ | जिनपूजा गुरुभक्ति, विनय करी सेवा सदा जी । 'पद्मविजय' नो शिष्य, 'भक्ति' पामे सुख संपदा जी ॥ १५॥ [ पञ्चमी का स्तवन । ]
पञ्चमी तप तुमें करो रे प्राणी, जिम पामो निर्मल ज्ञान रे । पहेलुं ज्ञान ने पछी किरिया नहीं कोई ज्ञान समान रे | पं० | १ | नंदीसूत्रमां ज्ञान वखाण्युं, ज्ञानना पांच प्रकार रे । मति श्रत अवधि ने मनः पर्यव, केवलज्ञान श्रीकार रे | पं०|२| मति अडावीसश्रत चउदह वीस, अवधि छ असंख्य प्रकार रे ।
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दोय भेदे मनःपत्र दाखपुं, केवल चन्द्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा, एह
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एक उदार रे | पं० - ३ | आकाश रे ।
अनेक