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संथारा पोरिसी ।
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अङ्गीकार करता हूँ कि जिस में जीवन पर्यन्त अरिहन्त ही मेरे देव हैं, सुसाधु ही मेरे गुरु हैं और केवलि-कथित मार्ग ही मेरे लिये तव है ॥१४॥
* खमिअ खमाविअ मह खमह, सव्वह जीवनिकाय । सिद्धह साख आलोयणह, मुज्झह वइर न भाव ॥ १५ ॥ सव्वे जीवा कम्मवस, चउदहराज भमंत । ते मे सव्व खमावि, मुज्झवि तेह खमंत ॥ १६ ॥ भावार्थ – [ खमण -खामणा । ] हे जीवगण ! तुम सब खमणखामणा कर के मुझ पर भी क्षमा करो । किसी से मेरा वैर भाव नहीं है । सब सिद्धों को साक्षी रख कर यह आलोचना की जाती है। सभी जीव कर्म-वश चौदह- राजु -प्रमाण लोक में भ्रमण करते हैं, उन सब को मैं ने खमाया है, इस लिये वे मेरे पर क्षमा करें ॥ १५॥१६॥
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जं जं मणेण बद्धं, जं जं वाएण भासिअं पावं । जं जं कायेण कथं, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥१७॥ भावार्थ – [ मिच्छामि दुक्कडं । ] जो जो पाप मैं ने मन, वचन और शरीर से किया, वह सब मेरे लिये मिथ्या हो ॥१७॥
* क्षमित्वा क्षमयित्वा मयि क्षमध्वं, सर्वे जीवनिकायाः । सिद्वानां साक्ष्ययालोचयामि मम वैरं न भावः ॥ १५ ॥ सर्वे जीवाः कर्मवशाश्चतुर्दश रज्जौ भ्राम्यन्तः ।
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ते मया सर्वे क्षामिताः, मय्यपि ते क्षाम्यन्तु ॥ १६ ॥ + यद् यद् मनसा बद्धं, यद् यद् वाचा भाषितं पापम् ।
यद् यत् कायेन कृतं, तस्य मिथ्या मे दुष्कृतम् ॥ १७ ॥
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