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सकलार्हत् स्तोत्र । २४७ जो सब सुरेन्द्र तथा असुरेन्द्रों से पूजित है, विद्वानों ने जिस का आश्रय ग्रहण किया है, जिस ने अपने कर्म का समूह बिल्कुल नष्ट किया है, जिस को नित्य नमस्कार करना चाहिये, जिस से.इस अनुपम तीर्थ का प्रचार हुआ है, जिस की तपस्या
अतिदुष्कर है और जिस में विभूति, धीरज, कीर्ति और कान्ति विद्यमान हैं, ऐसे हे महावीर प्रभो ! तू कल्याण दे ॥ २९॥
अवनितलगतानां कृत्रिमाकृत्रिमानां, वरभवनगतानां दिव्यवैमानिकानाम् ।
इह मनुजकृतानां देवराजार्चितानां, जिनवरभवनानां भावतोऽहं नमामि ।। ३०॥ ___ अन्वयार्थ--'वरभवनगतानां श्रेष्ठ भवनों में रहे हुए, 'दिव्यवैमानिकानाम्' श्रेष्ठ विमानों में रहे हुए [ और ] 'इह' इस लोक में 'मनुजकृतानां' मनुष्यों के बनाये हुए 'अवनितलगतानां भूतल पर वर्तमान 'कृत्रिमाकृत्रिमानां' अशाश्वत तथा शाश्वत [ ऐसे ] 'देवराजार्चितानां देवताओं के व राजाओं के द्वारा पूजित 'जिनवरभवनानां जिनवर के मन्दिरों को 'अहं' मैं 'भावतः' भावपूर्वक 'नमामि' नमस्कार करता हूँ ॥ ३०॥
मावार्थ-जिनमन्दिर तीन जगह हैं । भवनपति के भवनों में, वैमानिक के विमानों में और मध्य लोक में । मध्य लोक में कुछ तो शाश्वत हैं और कुछ मनुष्यों के बनाये हुए, अत एव अशाश्वत हैं। ये मन्दिर देव, राजा या देवराज
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