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संतिकर स्तवन ।
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+ इअ तित्थरक्खणरया, अन्ने वि सुरासुरी य चउहा वि । वंतरजोइणिपमुहा, कुणंतु रक्खं सया अम्हं ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ — 'इअ' इस प्रकार ' तित्थरक्खणरया' तीर्थरक्षा में तत्पर [ ऐसे] 'वंतर जोइणिपमुहा' व्यन्तर, ज्योतिषी वगैरह 'अन्ने वि' और भी 'चउहा वि' चारों प्रकार की 'सुरासुरी' देव तथा देवियाँ 'सया' सदा 'अम्हे' हमारी ' रक्खं ' रक्षा 'कुणतु' करें ॥११॥
भावार्थ - - उपर्युक्त गोमुख आदि चौबीस शासनाधिष्ठायक देव तथा चक्रेश्वरी आदि चौबीस शासनाधिष्ठायक देवियाँ और अन्य भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष तथा वैमानिक रूप चारों प्रकार के तीर्थ-रक्षा-तत्पर देव और देवियाँ सब हमारी निरन्तर रक्षा करें ॥ ७ - ११ ॥
* एवं सुदिट्टि सुरगण, सहिओ संघस्स संतिजिणचंदो । मज्झ वि करेउ रक्खं, मुणिसुंदरसूरिथुअमहिमा || १२ || अन्वयार्थ – ' एवं ' इस प्रकार 'मुणिसुंदरसूरिथुअमहिमा' मुनिसुन्दर सूरि ने जिस की महिमा गायी है [ ऐसा ] ↑ इति तीर्थरक्षणरता अन्येऽपि सुरासुर्यश्च चतुर्धाऽपि । व्यन्तरयोगिनीप्रमुखाः कुर्वन्तु रक्षां सदाऽस्माकम् ||११|| x एवं सुदृष्टिसुरगणसहितस्संघस्य शान्तिजिनचन्द्रः ।
ममाऽपि करोतु रक्षां मुनिसुन्दरसूरिस्तुतमहिमा ॥ १२ ॥
१ – इस पद के मुनिसुन्दर नामक सूरि तथा मुनियों में श्रेष्ठ आचार्य
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ऐसे दो अर्थ हैं । पहिले अर्थ के द्वारा प्रस्तुत स्तोत्र के कर्ता ने अपना नाम सूचित किया है और दूसरे अर्थ के द्वारा भगवान् की महिमा की आकर्षकता दिखाई है।
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