SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संतिकर स्तवन । ३०१ + इअ तित्थरक्खणरया, अन्ने वि सुरासुरी य चउहा वि । वंतरजोइणिपमुहा, कुणंतु रक्खं सया अम्हं ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ — 'इअ' इस प्रकार ' तित्थरक्खणरया' तीर्थरक्षा में तत्पर [ ऐसे] 'वंतर जोइणिपमुहा' व्यन्तर, ज्योतिषी वगैरह 'अन्ने वि' और भी 'चउहा वि' चारों प्रकार की 'सुरासुरी' देव तथा देवियाँ 'सया' सदा 'अम्हे' हमारी ' रक्खं ' रक्षा 'कुणतु' करें ॥११॥ भावार्थ - - उपर्युक्त गोमुख आदि चौबीस शासनाधिष्ठायक देव तथा चक्रेश्वरी आदि चौबीस शासनाधिष्ठायक देवियाँ और अन्य भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष तथा वैमानिक रूप चारों प्रकार के तीर्थ-रक्षा-तत्पर देव और देवियाँ सब हमारी निरन्तर रक्षा करें ॥ ७ - ११ ॥ * एवं सुदिट्टि सुरगण, सहिओ संघस्स संतिजिणचंदो । मज्झ वि करेउ रक्खं, मुणिसुंदरसूरिथुअमहिमा || १२ || अन्वयार्थ – ' एवं ' इस प्रकार 'मुणिसुंदरसूरिथुअमहिमा' मुनिसुन्दर सूरि ने जिस की महिमा गायी है [ ऐसा ] ↑ इति तीर्थरक्षणरता अन्येऽपि सुरासुर्यश्च चतुर्धाऽपि । व्यन्तरयोगिनीप्रमुखाः कुर्वन्तु रक्षां सदाऽस्माकम् ||११|| x एवं सुदृष्टिसुरगणसहितस्संघस्य शान्तिजिनचन्द्रः । ममाऽपि करोतु रक्षां मुनिसुन्दरसूरिस्तुतमहिमा ॥ १२ ॥ १ – इस पद के मुनिसुन्दर नामक सूरि तथा मुनियों में श्रेष्ठ आचार्य -- > ऐसे दो अर्थ हैं । पहिले अर्थ के द्वारा प्रस्तुत स्तोत्र के कर्ता ने अपना नाम सूचित किया है और दूसरे अर्थ के द्वारा भगवान् की महिमा की आकर्षकता दिखाई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy