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३०८ प्रतिक्रमण सूत्र । चूतादि किये, कराये। वितिगिच्छा-धर्मसस्बन्धी फल में संदेह किया। जिन वीतराग अरिहंत भगवान् धर्म के आगर विश्वोपकार सागर मोक्षमार्ग दातार इत्यादि गुणयुक्त जान कर पूजा म की । इसलोक परलोक-सम्बन्धी भोग वाञ्छा के लिये पूजा की । रोग आतङ्क कष्ट के आने पर क्षीण वचन बोला । मानता मानी । महात्मा महासती के आहार पानी आदि की निन्दा की । मिथ्यादृष्टि की पूजा-प्रभावना देख कर प्रशंसा की । प्रीति की । दाक्षिण्यता से उस का धर्म माना। मिथ्यात्व को धर्म कहा । इत्यादि श्रीसम्यक्त्व व्रतसम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते-अनजानते लगा हो, वह सब मन-वचन-काया कर मिच्छा मि दुक्कडं ।
पहले स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत के पाँच अतिचारःवह बंध छविच्छेए० ॥१०॥
द्विपद, चतुष्पद आदि जीव को क्रोध-वर्श ताड़न किया, घाव लगाया, जकड़ कर बाँधा । अधिक बोझ लादा । निलाञ्छन कर्म-नासिका छिदवाई, कर्ण छेदन करवाया। खस्सी किया। दाना घास पानी की समय पर सार-सँभाल न की, लेन देन में किसी के बदले किसी को भूखा रखा, पास खड़ा हो कर मरवाया । कैद करवाया । सड़े हुए धान को विना शोधे काम में लिया, अनाज शोधे विना पिसवाया। धूप में सुकाया । पानी यतना से न छाना, ईंधन,
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