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पाक्षिक अतिचार । ३१५ डंगर खरीदवाये । कर्कश वचन कहा । किचकिची ली। ताड़ना तर्जना की। मत्सरता धारण की । श्राप दिया । भैंसा, साँड़, मेंढा, मुरगा, कुत्ते आदिक लड़वाये या इन की लड़ाई देखी । ऋद्धिमान् की ऋद्धि देख ईर्षा की । मिट्टी, नमक, धान, बिनोले विना कारण मसले । हरी वनस्पति खूदी। शस्त्रादिक बनवाये। राग-द्वेष के वश से एक का भला चाहा। एक का बुरा चाहा । मृत्यु की वाञ्छा की। मैना, तोते, कबूतर, बटेर, चकोर आदि पक्षियों को पीजरे में डाला। इत्यादि आठवें अनर्थदण्डविरमणव्रतसंबन्धी जो कोई अतिचार पक्षदिवस में सूक्ष्म या बादर जानते-अनजानते लगा हो, वह सब मन-वचन-काया कर मिच्छा मि दुक्कडं ।
नौवें सामायिकत्रत के पाँच अतिचारः“तिविहे दुप्पणिहाणे" ॥२७॥
सामायिक में संकल्प किया । चित्त स्थिर न रखा। सावध वचन बोला । प्रमार्जन किये विना शरीर हलाया, इधर उधर किया। शक्ति के होते हुए सामायिक न किया । सामायिक में खुले मुँह बोला । नींद ली। विकथा की। घरसम्बन्धी विचार किया। दीपक या बिजली का प्रकाश शरीर 'पर पड़ा। सचित्त वस्तु का संघट्टन हुआ। स्त्री तिर्यञ्च आदि का निरन्तर परस्पर संघट्टन हुआ। मुहपत्ति संघट्टी । सामायिक अधूरा पारा, विना पारे उठा । इत्यादि नौवें
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