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पाक्षिक अतिचार ।
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पर्यवज्ञान और केवलज्ञान, इन पाँचों ज्ञानों में श्रद्धा न की। गूंगे तोतले की हँसी की । ज्ञान में कुतर्क की, ज्ञान की विपरीत प्ररूपणा की । इत्यादि ज्ञानाचारसम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानतेअनजानते लगा हो, वह सब मन-वचन-काया कर मिच्छा मि दुक्कडं ।
दर्शनाचार के आठ अतिचार :
निस्संकिय निक्कंखिय, निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी अ , उववूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥३॥
देव-गुरु-धर्म में निःशङ्क न हुआ, एकान्त निश्चय न किया । धर्मसम्बन्धी फल में संदेह किया । साधु-साध्वी की जुगुप्सा-निन्दा की। मिथ्यात्वियों की पूजा-प्रभावना देख कर मूढदृष्टिपना किया। कुचारित्री को देख कर चारित्र वाले पर भी अभाव हुआ। संघ में गुणवान् की प्रशंसा न की । धर्म से पतित होते हुए जीव को स्थिर न किया । साधर्मी का हित न चाहा । भक्ति न की । अपमान किया। देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, साधारण-द्रव्यकी हानि होते हुए उपेक्षा की। शक्ति के होते हुए भले प्रकार सार-संभाल न की। साधर्मी से कलह-क्लेश करके कर्मबन्धन किया। मुखकोश बाँधे विना भगवत् देव की पूजा की । धूपदानी, खस, कूची, कलश आदिक से प्रतिमाजी को ठपका लगाया । जिनबिम्ब हाथ से
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