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अजित-शान्ति स्तवन । २६५ + विमलससिकलाइरेअसोमं, वितिमिरसूरकराइरेअते । तिअसवइगणाइरेअरूवं, धरणिधरप्पवराइरेअसारं ॥१५॥
(कुसुमलया।) सत्ते असया अजिअं, सारीरे अ बले अजि। तवसंजमे अअजिअं, एस थुणामि जिणं अजिअं॥१६॥
(भुअगपरिरिंगि।) अन्वयार्थ–'विमलससि' निर्मल चन्द्र की 'कला' कलाओं से 'अइरेअसोमं' अधिक शीतल, वितिमिर' आवरणरहित 'सूर' सूर्य की 'कर' किरणों से 'अइरेअतेअं' अधिक तेजस्वी, 'तिअसवई' इन्द्रों के 'गण' गण से 'अइरेअरूवं' अधिक रूप वाले [और] 'धरणिधरप्पवर' पर्वतों में मुख्य अर्थात् सुमेरु से 'अइरेअसार' अधिक दृढता वाले ऐसे, तथा-] _ 'सत्ते' आत्म-बल में 'सया अजिअं' सदा अजेय 'अ' और 'सागरे बले' शरीर के बल में 'अजिअं' अजेय 'अ' तथा 'तवसंजमें' तपस्या और संयम में 'आजिअं अजेय ऐसे 'आजअं जिणं' अजितनाथ जिन की 'एस' यह अर्थात् मैं 'थुणामि स्तुति करता हूँ॥ १५॥ १६॥
• + विमलशशिकलातिरेकसौम्यं, वितिमिरसूरकरातिरेकतेजसम् ।
त्रिदशपतिगणातिरेकरूपं, धरणिधरप्रवरातिरेकसारम् ।। १५॥ सत्त्वे च सदाऽजितं, शारीरे च बलेऽजितम् ।
तपःसंयमे चाऽजितमेष स्तौमि जिनमजितम् ।। १६ ॥ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org