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प्रतिक्रमण सूत्र । क्लेश और मलिनता से रहित, शान्ति व सुख के प्रचारक
और महामुनि, ऐसे श्रीशान्तिनाथ भगवान् की मैं मन, वचन, काया से शरण लेता हूँ ॥ १७ ॥ १८ ॥ - _ * विणओणयसिररइअंजलिरिसिगणसंथु थिमिश्र, विबुहाहिवधगवइनरवइथुअमहिअच्चि बहुसो । __अइरुग्गयसरयदिवायरसमहिअसप्पमं तवसा, गयणंगणवियरणसमुइअचारणवंदिरं सिरसा ॥१९॥
(किसलयमाला ।) असुरगरुलपरिवंदिरं, किन्नरोरगनमंसि। देवकोडिसयसंथुअं, समणसंघपरिवंदि॥२०॥(सुमुहं।) अभयं अणहं, अरयं अरुयं ।। अजिअं अजिअं, पयओ पणमे ।२१। (विज्जुविलसि।)
अन्वयार्थ-विणओणय' विनय से नमे हुए 'सिर' मस्तक पर 'रइअंजलि' रची हुई अञ्जलि वाले 'रिसगण' ऋषि-गण के द्वारा 'संथुअं' मले प्रकार स्तवन किये गये,
* विनयावनतशिरोरचिताजलिऋषिगणसंस्तुतं स्तिमितं, विबुधाधिपधनपतिनरपतिस्तुतमाहतार्चितं बहुशः । अचिरोद्तशरद्दिवाकरसमाधिकसत्प्रभं तपसा, गगनाअनविचरणसमुदितचारणवन्दितं शिरसा ॥१९॥ असुरगरुडपग्विन्दितं, किन्नरोरगनमस्यितम् । देवकोटीशतसंस्तुतं, श्रमणसंघपरिवन्दितम् ।।२०।। . .
अभयमनघमरतमरुजम् । अजितमाजितं, प्रयतः प्रणमामि ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org