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प्रतिक्रमण सूत्र ।
चणरयण' उत्तम सुवर्ण और रत्नों से 'परूविय' प्रकाशित तथा 'भासुरभूसण' देदीप्यमान भूषणों से 'भासुरिअंगा' शोभमान अङ्ग वाले, 'गायसमोणय' नमे हुए शरीर वाले, 'भत्तिवसागय' भक्ति-वश आये हुए, 'पंजलिपेसियसीसपणामा' अञ्जलियुक्त मस्तक से प्रणाम करने वाले, 'वेरवि उत्ता' शत्रुतारहित [ और ] 'भत्तिसुजुत्ता' भक्ति में तत्पर [ ऐसे] 'सासुरसंघा' असुर-गणसहित 'सुरसंघा' सुर- गण [ अर्थात् ] 'सुरासुरा' सुर और असुर 'जं' जिस
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'जिणं' जिनेश्वर को 'वंदिऊण' वन्दन करके 'थोऊण' स्तवन कर के 'य' तथा 'तो' इस के बाद 'तिगुणमेव' तीन वार 'पयाहिणं' प्रदक्षिणापूर्वक 'पणमिऊण' प्रणाम करके 'तो' पीछे 'पमुहआ' प्रमुदित हो कर 'सभवणाइँ' अपने भवनों में 'गया' चले गये
'' उस 'रागदोसभय मोहवज्जियं राग, द्वेष, भय और मोह से वर्जित, 'देवदाणवनरिंदवंदिअं' देवों, दानवों और नरेन्द्रों के द्वारा वन्दित, 'उत्तममहातवं उत्तम और महान् तप वाले [ऐसे]. 'संतिम' श्रीशान्तिनाथ ' महामुणिम्' महामुनि को 'अहं पि' मैं मी 'पंजली' अञ्जलि किये हुए 'नमें' नमन करता हूँ ॥२२-२५॥
भावार्थ - इन चार छन्दों में से पहले का नाम वेष्टक, दूसरे का रत्नमाला और तीसरे और चौथे का क्षिप्तक है । चारों में श्री शान्तिनाथ की स्तुति है । इस में कवि ने पहले यह दिखाया
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