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संतिकर स्तवन ।
२९५ [और] 'भक्तपालगनिव्वाणीगरुडकयसेवं' भक्त-पालक निर्वाणी देवी तथा गरुड यक्ष के द्वारा सेवित [ऐसे] 'संतिजिणं' श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र को 'समरामि' [मै स्मरण करता हूँ ॥१॥
भावार्थ-जो शान्तिकारक है, जो सब के लिये शरणरूप है, जो जय-लक्ष्मी का दाता है, भक्तों का पालन करने वाली निर्वाणी देवी तथा गरुड यक्ष ने जिस की सेवा की है, उस श्रीशान्तिनाथ भगवान् का मैं स्मरण करता हूँ ॥१॥
+ ॐ सनमो विप्पोसहि,-पत्ताणं संतिसामिपायाणं । ..झाँस्वाहामंतेणं, सव्वासिवदुरिअहरणाणं ॥२॥ ___ अन्वयार्थ --'विप्पोसहिपत्ताणं' विप्रुडौषधि लब्धि को पाये हुए [और भौंस्वाहामंतेणं' झाँस्वाहा मन्त्र से 'सव्वासिवदुरिअहरणाणं' सब उपद्रव तथा पाप को हरने वाले [ऐसे] 'संतिसामिपायाण पूज्य शान्तिनाथ स्वामी को 'ओं सनमो' ओंकारपूर्वक नमस्कार हो ॥२॥
भावार्थ---जिन्हों ने विप्रुड्-औषधि नामक लब्धि पायी है और जो 'झौंस्वाहा' इस प्रकार के मन्त्र का जप करने से सभी अमङ्गल व पाप को नष्ट करते हैं, ऐसे पूज्य शान्तिनाथ प्रभु को ओंकारपूर्वक नमस्कार हो ॥२॥
औ सनमः विफडाँषधि प्राप्तेभ्यः शान्तिस्वामिपादेभ्यः ।
झोस्वाहामन्त्रेण सर्वाशिवदुरितहरणेभ्यः ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org