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बृहत् शान्ति ।
२९५ एषा शान्तिः प्रतिष्ठायात्रास्नात्राद्यवसानेषु शान्तिकलशं गृहीत्वा कुङ्कुमचन्दनकर्पूरागुरुधूपवासकुसुमाञ्जलिसमेतः स्नात्रचतुष्किकायां श्रीसंघसमेतः शुचिशुचिवपुः पुष्पवस्त्रचन्दनाभरणालंकृतः पुष्पमालां कण्ठे कृत्वा शान्तिमुद्घोषयित्वा शान्तिपानीयं मस्तके दातव्यमिति ।
अर्थ--प्रतिष्ठा, यात्रा और स्नात्र आदि उत्सवों के अन्त में यह शान्ति पढ़नी चाहिये । [ इस की विधि इस प्रकार है:-] शान्ति पढ़ने वाला शान्ति-कलश को ग्रहण करके कुङ्कुम, चन्दन, कपूर और अगर के धूप के सुवास से युक्त हो कर तथा अञ्जलि में फूल ले कर स्नात्र-भूमि में श्रीसंघ के साथ रह कर शरीर को अतिशुद्ध बना कर पुष्प, वस्त्र, चन्दन और आभूषणों से सज कर और गले में फूल की माला पहिन कर शान्ति की घोषणा करे । घोषणा करने के बाद संघ के सिर पर शान्ति-जल छिड़का जाय।
नृत्यन्ति नित्यं मणिपुष्पवर्ष, सृजन्ति गायन्ति च मंगलानि । स्तोत्राणि गोत्राणि पठन्ति मन्त्रान्,
कल्याणभाजो हि जिना [जन्मा] भिषेके ॥१॥ अर्थ-जो पुण्यशाली हैं, वे तीर्थंकरों के अभिषेक के समय नाच करते हैं, रत्न और फूलों की वर्षा करते हैं, मंगल गीत गाते हैं और भगवान् के स्तोत्र, नाम तथा मन्त्रों को हमेशा पढ़ते हैं ॥१॥
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