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प्रतिक्रमण सूत्र |
यह स्तवन उपसर्गों को हरण करने वाला है, इस लिये इसे पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में अवश्य पढ़ना चाहिये और सुनना चाहिये ॥३८॥
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+ जो पढइ जो अनिसुणइ, उभओकालं पि अजिअसंतिथअं । न उ हुंति तस्स रोगा, पुव्वुप्पन्ना वि नासंति ॥ ३९ ॥ अन्वयार्थ' अजिअसंतिथअं' इस अजित शान्ति स्तवन को 'उभओकालं पि' दोनों वख्त 'जो पढइ' जो पढ़ता है 'अ' ' और 'जो निसुणई' जो सुनता है, 'तस्स' उस को 'रोगा' रोग 'हु' कभी 'न हुंति' नहीं होते, [ और ] 'पुव्वुप्पन्ना' पहले के उत्पन्न हुए 'वि' भी 'नासंति' नष्ट हो जाते हैं ॥ ३९ ॥
भावार्थ - - जो मनुष्य इस अजित - शान्ति स्तवन को सुबह -शाम दोनों वख्त पढ़ता या सुनता है, उस को नये रोग नहीं होते हैं और पहले के भी नष्ट हो जाते हैं ॥ ३९ ॥
* जइ इच्छह परमपयं, अहवा कित्ति सुबित्थडं भुवणे । ता ते लुक्कुद्धरणे, जिणवयणे आयरं कुणह ||४०| अन्वयार्थ - 'जइ' अगर ' परमपयं परमपद को ' अहवा ' अथवा 'भुवणे' लोक में 'सुवित्थडं' अतिविस्तृत 'कित्ति' कीर्ति
१ - एक व्यक्ति पढ़ और शेष सब सुनें, ऐसा संप्रदाय चला आता है । ↑ यः पठति यच निश्रणोति, उभयकालमप्यजितशान्तिस्तवम्
नैव भवन्ति तस्य रोगाः, पूर्वोत्पन्ना अपि नश्यन्ति ॥३९॥ यदीच्छथ परमपदं, अथवा कीर्ति सुविस्तृतां भुवने । तदा त्रैलोक्योद्धरणे, जिनवचने आदरं कुरुध्वम् ॥ ४० ॥
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