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अजित-शान्ति स्तवन ।
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'अजिअं अजितनाथ को 'अहं' मैं ‘पयओ' आदरसहित 'पणमामि प्रणाम करता हूँ, 'भयवं' हे भगवन् 'मे' मेरे ‘पावं' पाप को 'पसभेउ प्रशान्त कर दीजिये ॥९॥ १० ॥
भावार्थ-इन दो छन्दों में पहले का नाम वेष्टक और दूसरे का नाम रासालुब्धक है। दोनों छन्दों में श्रीअजितनाथ की स्तुति है
जो प्रथम गृहस्थ अवस्था में श्रावस्ती नगरी का नरपति था, जिस का संस्थान (शरीर का आकार) प्रधान हाथी के मस्तक के समान सुन्दर और विशाल था, जिस की छाती में श्रीवत्स का स्थिर लाञ्छन था, प्रधान गन्ध-हस्ति की चाल की सी जिस की चाल थी, जो प्रशंसा करने लायक है, हाथी की (ढ की सी जिस की भुजाएँ थीं, तपे हुए सोने के भूषण के समान जिस का अतिस्वच्छ पीत वर्ण था, अच्छे अच्छे लक्षण वाला, सौम्य और सुन्दर जिस का रूप था, सुनने में सुखकारी, आह्लादकारी और अतिरमणीय ऐसे श्रेष्ठ देव-दुन्दुभि के नाद समान अत्यन्त मधुर और कल्याणकारक जिस की वाणी थी, जिस ने वैरि-गण को और सब भयों को भी जीत लिया और जिस ने राग-द्वेषादि विकाररूप संसार-परम्परा का नाश किया, उस श्रीअजितनाथ को मैं बहुमानपूर्वक प्रणाम करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि हे भगवन् ! आप मेरे पाप को शान्त कीजिये ॥ ९॥ १० ॥
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