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अजित-शान्ति स्तवन । २५१ + ववगयमंगुलभावे, ते हं विउलतवनिम्मलसहावे ।
निरुवममहप्पभावे, थोसामि सुदिठसम्भावे ॥२॥(गाहा) . अन्वयार्थ—'ववगयमंगुलभावे' तुच्छ भावों को नष्ट कर देने वाले, 'विउल' महान् 'तव' तप से 'निम्मलसहावे' निर्मल स्वभाव वाले, 'निरुवममहप्पभावे' अतुल और महान् प्रभाव वाले [और] 'सुदिट्ठसब्भोव' सत्य पदार्थों को अच्छी तरह देख लेने वाले [ ऐसे ] 'ते' उन की 'हं' मैं 'थोसामि' स्तुति करूँगा ॥२॥
भावार्थ--इस गाथा नामक छन्द में दोनों तीर्थंकरों का स्तवन करने की प्रतिज्ञा की गई है।
जिन के बुरे परिणाम बिल्कुल नष्ट हो चुके हैं, तीव्र तपस्या से जिन का स्वभाव निर्मल हुआ है, जिन का प्रभाव अतुलनीय और महान् है और जिन्हों ने यथार्थ तत्वों को पूर्णतया जाना है, उन श्रीअजितनाथ तथा शान्तिनाथ का मैं स्तवन करूँगा ॥२॥ * सव्वदुक्खप्पसंतीणं, सव्वपावप्पसतिणं ।
सया अजिअसंतीणं, नमो अजिअसतिणं ॥३॥ (सिलोगो)
अन्वयार्थ-सव्वदुक्खप्पसंतीणं' सब दुःख को शान्त किये हुए, 'सव्वपावप्पसंतिणं' सब पाप को शान्त किये हुए [ और ] 'सया' सदा 'आजिअसंतीणं' अजेय तथा शान्ति धारण करने वाले [ ऐसे ] 'अजिअसंतिणं' अजितनाथ तथा शान्तिनाथ को 'नमो' नमस्कार हो ॥ ३ ॥ + व्यपगताशोभनभावौ, तावहं विपुलतपोनिमलस्वभावौ ।
निरुपममहाप्रभावी, स्तोध्ये सुदृष्टसद्भावौ ॥२॥ * सर्वदुःखप्रशान्तिभ्यां, सर्वपापप्रशान्तिभ्याम् ।। सदाऽजितशान्तिभ्यां, नमोऽजितशान्तिभ्याम् ॥३॥
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