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सकलाहत् स्तोत्र ।
२४९ 'अष्टादश' अठारह 'दोषः दोषरूप 'सिन्धुर' हाथियों की 'घटा' घटा को 'निर्भेद तोड़ने के लिये 'पञ्चाननः' सिंह के समान है, [वह] 'श्रीवीतरागः जिनः' श्रीवीतराग जिनेश्वर भव्यानां भव्यों के 'वाञ्छितफलं' इष्ट फल को 'विदधातु संपादन करे ॥ ३२ ॥
भावार्थ-जो अनेक भवों के संचित और तीव्र ऐसे महान् पापों को जलाने में अग्नि-सदृश है, जो मुक्ति का आभूषण है और जो अठारह दोषरूप हाथियों के जमाव को तोड़ने के लिये सिंह के समान है, वह श्रीवीतराग देव भव्यों के मनोरथ पूर्ण करे ॥ ३२ ॥
ख्यातोऽष्टापदपर्वतो गजपदः संमेतशलाभिधः, श्रीमान् रैवतकः प्रसिद्धमाहिमा शत्रुज्जयो मण्डपः ।।
वैभारः कनकाचलोऽर्बुदगिरिः श्रीचित्रकूटादयस्तत्र श्रीऋषभादयो जिनवराः कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥३३॥
अन्क्याथे--- ‘ख्यातः' प्रसिद्ध 'अष्टापदपर्वतः' अष्टापद पर्वत, 'गजपदः' राजपद पर्वत, 'संमेतशैलाभिधः' समेतशिखर पर्वत, 'श्रीमान्' श्रेष्ठ 'रैवतकः' गिरिनार, 'प्रसिद्धमहिमा' प्रसिद्ध महिमा काला 'शत्रुञ्जयः शरुञ्जय, 'मण्डपः' मॉडवगढ़, 'वैभारः' वैभारगिरि, 'कनकाचलः' सोनागिरि, 'अर्बुदगिरिः आबू [और] 'श्रीचित्रकूटादयः' चित्तौड़ वगैरः जो तीर्थ हैं, 'तत्र' उन पर स्थित] 'श्रीऋषभादयः जिनवराः' श्रीऋषभदेव वगैरःजिनेश्वर 'वः' तुम्हारा ‘मङ्गलम्' मंगल 'कुर्वन्तु' करें ॥ ३३ ॥
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