________________
स्नातस्या की स्तुति। १९५ जन्माभिषेक सभी देवेन्द्रों और दानवेन्द्रों ने सुमेरु पर्वत के शिखर पर किया था। जन्माभिषेक के लिये कलशों में भर कर जो पानी लाया गया था, वह था यद्यपि क्षीर समुद्र का, अत एव दूध की तरह श्वेत, परन्तु उस में हंसों के परों से उड़ाई गई कमल-रज इतनी अधिक थी कि जिस से वह सहज-श्वेत जल , भी पीला हो गया था । पानी ही पीला था, यह बात नहीं किन्तु पानी से भरे हुए कलशे भी स्वर्णमय होने के कारण पीले ही थे । इस प्रकार पीले पानी से भरे हुए स्वर्णमय कलशों की शोभा अनौखी थी अर्थात् वे कलशे अप्सराओं के स्तनों को भी मात करते थे ॥२॥
अर्हद्वक्त्रप्रसूतं गणधररचितं द्वादशाङ्ग विशालं, __चित्रं बह्वर्थयुक्तं मुनिगणवृषभैर्धारितं बुद्धिमद्भिः । मोक्षारद्वारभूतं व्रतचरणफलं ज्ञेयभावप्रदीपं,
भक्त्या नित्यं प्रपद्ये श्रुतमहमखिलं सर्वलोकैकसारम् ॥३॥
भावार्थ- [आगम-स्तुति । ] मैं समस्त श्रत-आगम का भक्ति-पूर्वक आश्रय लेता हूँ; क्यों कि वह तीर्थङ्करों से अर्थरूप में प्रकट हो कर गणधरों के द्वारा शब्दरूप में प्रथित हुआ है । वह श्रत विशाल है अत एव बारह अङ्गों में विभक्त है। वह अनेक अर्थों से युक्त होने के कारण अद्भुत है, अत एव उस को बुद्धिमान् मुनिपुङ्गवों ने धारण कर रक्खा है । वह चारित्र ।
Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org