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प्रतिक्रमण सूत्र।
पाला जाता है 'सा क्षेत्रदेवता' वह क्षेत्रदेवता 'नः' हमारे लिये 'नित्यं हमेशा 'सुखदायिनी भूयात्' सुख देने वाली हो॥१॥
भावार्थ-वह क्षेत्रदेवता हमें हमेशा सुख पाने में सहायक बनी रहे, जिस के क्षेत्र में रह कर साधु पुरुष अपने चारित्र का निराबाध आराधन करते हैं ॥१॥
५६-सकलात् स्तोत्र । सकलाहत्प्रतिष्ठान, मधिष्ठानं शिवश्रियः । भूर्भुवः स्वस्त्रयीशान,-मार्हन्त्यं प्रणिदध्महे ॥१॥
अन्वयार्थ----'सकल' सब 'अहत्' अरिहन्तों की प्रतिष्ठानम्' प्रतिष्ठा के कारण, 'शिवश्रियः' मोक्ष लक्ष्मी के 'अधिष्ठानं' आधार, तथा] 'भू : पाताल, 'भुवः' मृत्युलोक और 'स्वः' स्वर्ग, इन 'त्रयी' तीनों के 'ईशानम्' स्वामी ऐसे] 'आर्हन्त्यं' अर्हत् पद का 'प्रणिदध्महे' हम ध्यान करते हैं ॥१॥
भावार्थ--जो सब तीर्थङ्करों की महिमा का कारण है, जो मोक्ष का आश्रय है और जिस का प्रभाव स्वर्ग, मृत्यु और पाताल, इन तीनों लोक में है, उस अरिहन्त पद का अर्थात् अनन्त ज्ञान आदि आन्तरिक विभूाते और समवसरण आदि बाह्य विभूति का हम ध्यान करते हैं ॥१॥
नामाकृतिद्रव्यभावः, पुनतस्त्रिजगज्जनम् । क्षेत्रे काले च सर्वस्मि, न्नर्हतः समुपास्महे ॥२॥
अन्वयार्थ–'सर्वस्मिन्' सब क्षेत्रे' क्षेत्र में 'च' और 'काले' काल में 'नामाकृतिद्रव्यभावैः' नाम, स्थापना, द्रव्य और
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