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सकलाहत् स्तोत्र । २३१ भाव के द्वारा 'त्रिजगज्जनम्' तीनों जगत् के प्राणियों को 'पुनतः' पवित्र करने वाले [ऐसे ] 'अर्हतः' अरिहन्तों की 'समुपास्महे' [हम] उपासना करते हैं ॥ २ ॥
भावार्थ-सब लोक में और सब काल में अपने नाम, स्थापना, द्रव्य और भावं, इन चार निक्षेपों के द्वारा तीनों
१-किसी व्यक्ति की जो 'अरिहन्त' संज्ञा है, वह 'नाम-अरिहन्त' है। २-अरिहन्त की जो मूर्ति, तसबीर आदि है, वह 'स्थापना-अरिहन्त' है। ३-जो अरिहन्त पद पा चुका या पाने वाला है, वह 'द्रव्य-अरिहन्त' है।
४-जो वर्तमान समय में अरिहन्त पद का अनुभव कर रहा हो, वह 'भाव-अरिहन्त' है।
५-प्रायः सब शब्दों के अर्थ के सामान्यरूप से चार विभाग किये जा सकते हैं । ये ही विभाग 'निक्षेप' कहलाते हैं । जैसे:--नाम, स्थापना, द्रव्य
और भाव । ___'नाम-निक्षेप' उस अर्थ को कहते हैं, जिस में संकेत-वश संज्ञारूप से शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे कोई ऐसी व्यक्ति जो न तो राजा के खास गुणों को ही धारण करती है या न राजा के कार्य को ही करती है, किन्तु सिर्फ संज्ञा-वश राजा कहलाती है। ___ स्थापना-निक्षेप' उस अर्थ को कहते हैं, जिस में भाव-निक्षेप के गुणों का आरोप किया जाता है, चाहे फिर वह भाव के समान हो या असमान । जैसे कोई चित्र या मूर्ति आदि जिस में न तो राजा की सी शक्ति है और न चैतन्य ही, किन्तु सिर्फ राजपने के आरोप के कारण जिस को राजा समझा जाता है। - 'द्रव्य-निक्षेप' उस अर्थ को कहते हैं, जो वर्तमान समय में भाव-शून्य है किन्तु पहले कभी भावसहित था या आगे भावसहित होगा । जैसे कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org