________________
१९४ प्रतिक्रमण सूत्र ।
५३-स्नातस्या की स्तुति । स्नातस्याप्रतिमस्य मेरुशिखरे शच्या विभोः शैशवे,
रूपालोकनविस्मयाहृतरसभ्रान्त्या भ्रमच्चक्षुषा । उन्मृष्टं नयनप्रभाधवलितं क्षीरोदकाशङ्कया,
वक्त्रं यस्य पुनः पुनः स जयति श्रीवर्द्धमानो जिनः॥१॥
भावार्थ-[ महावीर की स्तुति । ] भगवान् महावीर की सब जगह जय हो रही है । भगवान् इतने अधिक सुन्दर थे कि बाल्यावस्था में मेरु पर्वत पर स्नान हो चुकने के बाद इन्द्राणी को उन का रूप देख कर अचरज हुआ । अचरज से वह भक्तिरस में गोता लगाने लगी और उस के नेत्र चञ्चल हो उठे। भगवान् के मुख पर फैली हुई नेत्र की प्रभा इतनी स्वच्छ व धवल थी जिसे देख इन्द्राणी को यह आशङ्का हुई कि स्नान कराते समय मुख पर क्षीर समुद्र का पानी तो कहीं बाकी नहीं रह गया है । इस आशङ्का से उस ने भगवान् के मुख को कपड़े से पोंछा और अन्त में अपनी आशङ्का को मिथ्या समझ कर मुख के सहज सौन्दर्य को पहचान लिया ॥१॥ हंसांसाहतपद्मरेणुकपिशक्षीरार्णवाम्भोभृतैः, ___ कुम्भैरप्सरसां पयोधरभरप्रस्पर्द्धिभिः काञ्चनैः । येषां मन्दररत्नशैलशिखरे जन्माभिषेकः कृतः, सर्वैः सर्वसुरासुरेश्वरगणैस्तेषां नतोऽहं क्रमान् ॥२॥
भावार्थ-[जिनेश्वरों की स्तुति । ] मैं जिनेश्वरों के चरणों में नमा हुआ हूँ। जिनेश्वर इतने प्रभावशाली थे कि उन का
Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org