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प्रतिक्रमण सूत्र |
* एगोऽहं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ । एवं अदणिमणसो, अप्पाणमणुसासइ ||११|| एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥१२॥ संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा । तम्हा संजोगसंबंधं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ||१३|| भावार्थ -- [ एकत्व और अनित्यत्व भावना | ] मुनि प्रसन्न चित्त से अपने आत्मा को समझाता है कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी दूसरे का नहीं हूँ | ज्ञान-दर्शन पूर्ण मेरा आत्मा ही शाश्वत है; आत्मा को छोड़ कर अन्य सब पदार्थ संयोगमात्र से मिले हैं। मैं ने परसंयोग से ही अनेक दुःख प्राप्त किये हैं; इस लिये उस का सर्वथा त्याग किया है ॥११- १३॥ अरिहंतो मम देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपन्नत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहिअं ||१४|| भावार्थ -- [ सम्यक्त्व - धारण । ] मैं इस प्रकार का सम्यक्त्व * एकोऽहं नास्ति मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित् । एवमदीनमना, आत्मानमनुशास्ति ॥११॥
एको मे शाश्वत आत्मा, ज्ञानदर्शनसंयुतः ।
शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ १२ ॥ संयोगमूला जीवेन, प्राप्ता दुःखपरम्परा । तस्मात् संयोगसंबन्धः, सर्व त्रिविधेन व्युत्सृष्टः ॥१३॥ अर्हन् मम देवो, यावज्जीवं सुसाधवो गुरवः ।
जिनप्रज्ञप्तं तत्त्वमिति सम्यक्त्वं मया गृहतिम् ॥ १४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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