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वंदित्त सूत्र ।
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सब पापों का त्रिविध प्रतिक्रमण कर के चौबीस तीर्थङ्करों को वन्दन करता हूँ ॥४३॥
जावंति चेइआई, उट्ठे अ अहे अ तिरिअलोए अ । सव्वाइँ त वंदे, इह संतो तत्थ संताएँ || ४४ ||
अर्थ — पूर्ववत् ।
जावंत के वि साहू, भरहेर महाविदेहे अ । सव्वेसिंतेसिं पणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं ॥ ४५ ॥ अर्थ — पूर्ववत् ।
* चिरसंवियपानपणा, -सणीइ भवस सहस्समहणीए । चउवीस जणविणिग्गय, कहाइ बोलंतु मे दिअहा । ४६ । अन्वयार्थ ---- 'चिरसंचियपावपणासणी बहुत काल से इकट्ठे किये हुए पापों का नाश करने वाली 'भवसयसहस्समहणीए' लाखों भवों को मिटाने वाली 'चउवीसाजणविणिग्गय' चौबीस जिनेश्वरों के मुख से निकली हुई 'कहाई' कथा के द्वारा 'मे' मेरे 'दिअहा' दिन 'बोलंतु' बीतें ॥ ४६ ॥
भावार्थ - जो चिरकाल सञ्चित पापों का नाश करने वाली है, जो लाखों जन्म जन्मान्तरों का अन्त करने वाली है और जो सभी तीर्थङ्करें। के पवित्र मुख - कमल से निकली हुई है, ऐसी सर्व-हितकारक धर्म-कथा में ही मेरे दिन व्यतीत हों ॥ ४६ ॥
* चिरसञ्चितपापप्रणाशन्या भवशतसहस्रमथन्या | चतुर्विंशतिजिन विनिर्गत, - कथया गच्छन्तु मम दिवसाः ॥ ४६ ॥
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