________________
१४८
प्रतिक्रमण सूत्र ।
इति पूर्व पूरिदर्शित, मन्त्रपदविदर्भितः स्तवः शान्तेः । सलिलादिभयविनाशी, शान्त्यादिकरश्च भक्तिमताम् ||१६|| अन्वयार्थ - 'इति' इस प्रकार 'पूर्वसूरिदर्शित' पूर्वाचार्यों के बतलाये हुए 'मन्त्रपदविदर्भितः' मन्त्र - पदों से रचा हुआ 'शान्तेः ' श्री शान्तिनाथ का 'स्तवः' स्तोत्र 'भक्तिमताम्' भक्तों के 'सलिला - दिभयविनाशी' पानी आदि के भय का विनाश करने वाला 'च' और 'शान्त्यादिकरः ' शान्ति आदि करने वाला है ॥ १६ ॥
भावार्थ- पूर्वाचार्यों के कहे हुए मन्त्र - पदों को ले कर यह स्तोत्र रचा गया है । इस लिये यह भक्तों के सब प्रकार के भयों को मिटाता है और सुख, शान्ति आदि करता है ॥ १६॥
यचैनं पठति सदा, शृणोति भावयति वा यथायोगम् । स हि शान्तिपदं यायात्, सूरिः श्रीमानदेवश्च ॥ १७॥ अन्वयार्थ – 'यः' जो [भक्त ] 'एनं ' इस स्तोत्र को 'सदा' हमेशा ‘यथायोगम्' विधि-पूर्वक 'पठति' पढ़ता है, 'शृणोति सुनता है 'वा' अथवा 'भावयति' मनन करता है 'सः' वह 'च और 'सूरिः श्रीमानदेव : ' श्रीमानदेव सूरि 'शान्तिपदं' मुक्ति-पद को 'हि' अवश्य ' यायात्' प्राप्त करता है ||१७||
भावार्थ — जो भक्त इस स्तोत्र को नित्यप्रति विधि - पूर्वक पढ़ेगा, सुनेगा और मनन करेगा, वह अवश्य शान्ति प्राप्त करेगा । तथा इस स्तोत्र के रचने वाले श्रीमानदेव सूरि भी शान्ति पायँगे ॥ १७ ॥
Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org