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वंदित्त सूत्र |
सम्बन्ध, 'अणंग' काम क्रीडा 'वीवाह' विवाह सम्बन्ध, 'तिव्वअणुरागे' काम भोग की प्रबल अभिलाषा, [इन] 'चउत्थवयस्स' चौथे वृत के 'अइआरे' अतिचारों से [ लगे हुए ] 'देसिअं' दिवस सम्बन्धी ‘सव्वं’ सब दूषण से 'पडिक्कमे' निवृत्त होता हूँ ॥ १५ ॥ १६ ॥ भावार्थ मैथुन के सूक्ष्म और स्थूल ऐसे दो भेद हैं । । इन्द्रियों का जो अल्प विकार है वह सूक्ष्म मैथुन है और मन, वचन तथा शरीर से कामभोग का सेवन करना स्थूल मैथुन है । गृहस्थ के लिये स्थूल मैथुन के त्याग का अर्थात् सिर्फ अपनी स्त्री में संतोष रखने का या दूसरे की व्याही हुई अथवा रक्खी हुई ऐसी परस्त्रियों को त्यागने का विधान है । यही चौथा अणुव्रत है । इस व्रत में लाने वाले अतिचारों की इन दो गाथाओं में आलोचना है । वे अतिचार ये हैं :
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१ - चतुर्थ व्रत के धारण करने वाले पुरुष तीन प्रकार के होते हैं - ( १ ) सर्वथा ब्रह्मचारी, (२) स्वदार संतोषी, (३) परदारत्यागी । पहले प्रकार के ब्रह्मचारी के लिये तो अपरिगृहीता - सेवन आदि उक्त पाँचों अतिचार हैं; परन्तु दूसरे तीसरे प्रकार के ब्रह्मचारी के विषय में मतभेद है । श्रीहरिभद्र सूरिजी ने आवश्यक सूत्र की टीका में चूर्णि के आधार पर यह लिखा है कि स्वदार संतोषी को पाँचों अतिचार लगते हैं किन्तु परदारत्यागी को पिछले तीन द्दी, पहले दो नहीं [आवश्यक टीका, पृष्ठ ८२५] । दूसरा मत यह है कि स्वदार संतोष को पहला छोड़कर शेष चार अतिचार । तीसरा मत यह है कि परदारत्यागी को पाँच अतिचार लगते हैं, पर स्वदार संतोषी को पिछले तीन अतिचार, पहले दो नहीं । [ पञ्चाशक टीका, पृष्ठ १४-१५ ] । स्त्री के लिये पाँचों अतिचार विना मत-भेद के माने गये हैं । [ पञ्चाशक टीका, पृष्ठ १५
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