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पंचिंदिय।
नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति को धारण करने वाला, 'चउविहकसायमुक्को' चार प्रकार के कषाय से मुक्त ' इय' इस प्रकार 'अट्ठारसगुणेहिं' अठारह गुणों से संजुत्तो' संयुक्त ॥ १ ॥
+ पंचमहब्बयजुत्ता, पंचविहायारपालणसमत्थो । पंचसमिओ तिगुत्तो, छत्तीसगुणो गुरू मज्झ ॥२॥ अन्वयार्थ पंचमहव्वयजुत्तो' पांच महाव्रतों से युक्त 'पंचविहायारपालणसमत्थो ' पांच प्रकार के आचार को पालन करने में समर्थ, · पंचसमिओ' पांच समितियों से युक्त, ' तिगुत्तो' तीन गुप्तियों से युक्त [ इस तरह कुल ] 'छत्तीसगुणो'
छत्तीस गुणयुक्त · मज्झ' मेरा — गुरू ' गुरु हैं ॥ २ ॥ __ भावार्थ त्वचा, जीभ, नाक, आँख और कान इन पाँच इन्द्रियों के विकारों को रोकने से पाँच; ब्रह्मचर्य की नव गुप्तियों के धारण करने से नव; क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों को त्यागने से चार; ये अठारह तथा प्राणातिपात-विरमण, मृषावाद-विरमण, अदत्तादान-विरमण, मैथुन-विरमण और परिग्रह-विरमण इन पांच महाव्रतों के पांच; ज्ञानाचार, दर्शना
+ पञ्चमहाव्रतयुक्तः पञ्चविधाचारपालनसमर्थः । ___ पञ्चसमितः त्रिगुप्तः षट्त्रिंशद्गुणो गुरुर्मम ॥ २ ॥
१-ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ-रक्षा के उपाय-य हः-( १ ) स्त्री, पशु या नपुंसक के संसर्ग वाले आसन, शयन, गृह आदि सेवन न करना, (२) स्त्री के साथ रागपूर्वक बातचीत न करना, (३) स्त्री-समुदाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org